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भागलपुर की आशा चौधरी ने किए थे अंग्रेजों के दांत खट्टे, इस तरह किया था नेताजी सुभाष का सहयोग

जाबांज महिला सैनिकों से भरी रानी झांसी रेजिमेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित द्वितीय आजाद हिंद फौज का हिस्सा था। श्रीमती आशा चौधरी उसमें सेकेंड लेफ्टिनेंट थीं। उन्‍होंने बताया कि किस तरह सुभाष बाबू ने अंग्रेजों से मुकाबला किया था।

By Dilip Kumar shuklaEdited By: Published: Wed, 27 Jan 2021 07:44 AM (IST)Updated: Wed, 27 Jan 2021 07:44 AM (IST)
भागलपुर की आशा चौधरी ने किए थे अंग्रेजों के दांत खट्टे, इस तरह किया था नेताजी सुभाष का सहयोग
भागलपुर की आशा चौधरी, जिन्‍होंने स्‍वतंत्रता आंदोलन में लिया भाग।

भागलपुर [विकास पाण्डेय]। बिहार के भागलपुर में नाथनगर स्थित पुरानी सराय मोहल्ले की श्रीमती आशा चौधरी देश की सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी हैं। 1944 में वह 17 वर्ष की उम्र में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में गठित आजाद हिंद फौज की सहयोगी रेजिमेंट रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल हुई थीं। आज भी वे समाज सेवा में जुटी हुई हैं। जापान में ही शिक्षा दीक्षा पूरी करने वाली आशा चौधरी बताती हैं कि उस समय हम उम्र युवाओं व बुजुर्गों तक में बला की देशभक्ति दिखती थी। हमलोग फैशन तो दूर टॉफी तक का ख्याल मन में नहीं लाते थे। हमलोगों पर एक ही धुन सवार रहता कि जल्द से जल्द हमारी मातृभूमि स्वतंत्र हो जाए। इनके पिता आनंद मोहन सहाय नेताजी के निकट सहयोगी और आजाद हिंद फौज के सेक्रेटरी जनरल थे। उनकी माता सती सहाय पश्चिम बंगाल के चोटी के कांग्रेसी नेता व बैरिस्टर चित्तरंजन दास की भांजी थीं। सती सहाय देशभक्त महिला व स्वतंत्रता सेनानी थी। वह बताती हैं कोलकाता की होने के कारण उनकी मां का नेताजी सुभाषचंद्र बोस से घरेलू संबंध था। 1943 में नेताजी के जर्मनी से सिंगापुर आने पर एक दिन मां व उनके चाचाजी, उन्हें व छोटी बहन रजिया को साथ नेताजी से भेंट करने गईं। वहां उन्होंने नेताजी से दोनों बेटियों को रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल करने का आग्रह किया। इस पर नेताजी ने कहा कि अभी तो वे बहुत छोटी हैं। अगले वर्ष वे उसे रेजिमेंट में शामिल कर लेंगे। ठीक एक वर्ष बाद 1944 में आशा जी  को उसमें शामिल कर लिया गया। उसके बाद बैंकाक में उन्हें नौ माह की युद्ध संबंधी कड़ी ट्रेनिंग दिलाई गई। इसमें राइफल चलाना, एंटी एअर क्राफ्ट गन चलाना, युद्ध के तरीके, गुरिल्ला युद्ध की बारीकियां आदि का प्रशिक्षण दिया गया। देश को आजादी दिलाने के लिए ब्रिटिश फौज से युद्ध के दौरान वे सिंगापुर, मलेशिया और बर्मा के युद्ध मैदान में सक्रिय रहीं। इस दौरान उन्हें कई सप्ताह तक रेजिमेंट की नायक कर्नल लक्ष्मी सहगल के नेतृत्व में बर्मा के घने जंगल में रहना पड़ा। वहां खाने-पीने की समस्या तो दूर बम से जख्मी होने पर भी महिला सैनिक लड़ती रहती थीं। इनके अनुसार, हमारी सेना को मणिपुर की ओर आगे बढ़ते देख हतप्रभ ब्रिटिश सेना ने हमारी सेना पर लड़ाकू विमान से अंधाधुंध नापाम बम बरसाने शुरू कर दिए। हमारे छिपने के ठिकाने, पेड़-पौधे जला डाले गए, कई सिपाही हताहत हो गए, कई जख्मी हो गए। कई महिला सिपाही भी गंभीर रूप से जख्मी हो गईं। उन सबों को अस्पताल पहुंचाया गया। इसके बावजूद देश को शीघ्र आजाद करने की ललक के कारण हमें पीछे हटना गंवारा नहीं था। पर इसी बीच जापान पर एटम बम गिरा दिया गया तो वह भी हमें सहयोग करने की स्थिति में नहीं रह गया। ऐसे में नेताजी ने आगे फिर युद्ध शुरू करने की मंसा से सैनिकों से तत्काल युद्ध विराम करने की घोषणा कर सभी सैनिकों को बर्मा के मेमयो द्वीप पर बुला लिया।

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भारतीय फौज की मदद से देश को आजादी दिलाने की थी नेताजी की योजना

आशा जी बताती हैं कि नेताजी सुभाष बोस की योजना थी कि आजाद हिंद फौज के सिपाही लड़ाई में ब्रिटिश सेना को परास्त कर देश के स्वाधीनता आंदोलन के सिपाहियों से जा मिलेंगे और फिरंगियों से भारत माता को स्वाधीन करा लेंगे।

आजादी के बाद कांग्रेस को सत्ता सौंपने की थी उनकी इच्छा

नेताजी  कहा करते थे कि उनकी व आजाद हिंद फौज की जिम्मेदारी सिर्फ भारत को आजाद करना है। उसके बाद सत्ता कांग्रेस के हाथों में सौंप दी जाएगी।

देशवासियों में कूट कूट कर भरी थी देशभक्ति

अपने स्मरण को कुरेदते हुए आशाजी उस समय की एक आंखों देखी घटना के बारे में बताती हैं कि आजाद हिंद फौज के खर्च के लिए फंड की जरूरत पड़ती थी। 1944 में नेताजी बैंकाक में थे। वहां यूपी व पश्चिम बिहार के कई देशभक्त यदुवंशी रहते थे। वे वहां दूध का व्यवसाय करते थे। एक पशुपालक ने अपने बेटे को आजाद हिंद फौज व पुत्री को रानी झांसी रेजिमेंट में भर्ती करा दिया। अपनी गौशाला, पशु आदि बेच कर मोटी राशि जुटाई और एक दिन सोने-चांदी के जेबरात व पूरी राशि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के चरणों पर रख कर कहा कि उनके पास जो कुछ था उसे देश को समर्पित कर दिया। अब वे दोनों बचे हैं। उन्हें भी देश की सेवा में लगा लिया जाए।

जब नेताजी ने देशभक्त दंपती को आजाद हिंद फौज में किया शामिल

तब नेताजी ने उन्हें गले से लगाते हुए अपना बॉडीगार्ड बना लिया और उनकी पत्नी सावित्री देवी को रानी झांसी रेजिमेंट में सेविका के रूप में बहाल कर लिया था। आशा जी कहती हैं-हमलोग उन्हें मां कह कर पुकारते थे।

बचपन में हमलोगों का एक ही धुन था देश की आजादी....

प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी आशा चौधरी  कहती हैं वे लोग बचपन में मन में फैशन ही नहीं टॉफी तक का ख्याल नहीं लाती थीं। उनके मन में एक ही धुन था मातृभूमि की आजादी। वह कहती हैं, आज के युवाओं को कर्मठ बनकर उत्कृष्ट कार्य कर देश सेवा में जुटे रहना चाहिए। सभी का उद्देश्य देश को खुशहाल बनाना होना चाहिए।

नेताजी जैसे दृढ़ चरित्र के व्यक्ति छिपकर रहने वाले नहीं थे: आशा

आशा चौधरी का कहना है कि उन्होंने व उनके पापा नेताजी के निकट सहयोगी व द्वितीय आजाद हिंद फौज के सेक्रेटरी जनरल स्व. आनंद मोहन सहाय ने बहुत पहले ही सरकार तथा जांच आयोगों को भारी मन से बता दिया था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ताइवान के फारमोसा में 1945 में हुए विमान दुर्घटना में दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से शहीद हो चुके हैं। उनकी पवित्र अस्थि-राख जापान के टोक्यो स्थित रेंकोजी मंदिर में रखी हुई है। वहां से उसे स्वदेश लाया जाए। लेकिन देश के चोटी के नेताओं को न उनकी बातों पर भरोसा हुआ था और न नेताजी की अस्थि राख स्वदेश लाई गई। इनका कहना है कि नेताजी जैसे दृढ़ देशभक्त इतने लंबे समय तक छिप कर रहने वाले नहीं थे।

जाबांज महिला सैनिकों से भरी रानी झांसी रेजिमेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित द्वितीय आजाद हिंद फौज का हिस्सा था। श्रीमती आशा चौधरी उसमें सेकेंड लेफ्टिनेंट थीं। श्रीमती चौधरी बताती हैं कि नेताजी के जर्मनी से सिंगापुर आने पर एक दिन मां व उनके चाचाजी, उनके व उनकी बहन रजिया के साथ नेताजी से भेंट करने गईं। वहां उन्होंने नेताजी से दोनों बेटियों को रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल करने का आग्रह किया तो नेताजी ने कहा कि अभी तो वे छोटी हैं। अगले वर्ष वे उसे रेजिमेंट में शामिल कर लेंगे। ठीक एक वर्ष बाद 1944 में आशा जी  को उसमें शामिल कर लिया गया। इससे पूर्व बैंकाक में उन्हें नौ माह की युद्ध संबंधी कड़ी ट्रेनिंग दिलाई गई। इसमें राइफल चलाना, एंटी एअर क्राफ्ट गन चलाना, युद्ध के तरीके, गुरिल्ला युद्ध की बारीकियां आदि का प्रशिक्षण दिया गया। देश को आजादी दिलाने के लिए ब्रिटिश फौज से युद्ध के दौरान वे सिंगापुर, मलेशिया और बर्मा के युद्ध मैदान में सक्रिय रहीं। इस दौरान उन्हें कई सप्ताह तक रेजिमेंट की नायक कर्नल लक्ष्मी सहगल के नेतृत्व में बर्मा के घने जंगल में रहना पड़ा। आज भी वे समाज सेवा में जुटी हुई हैं।

पशुपालक ने नेताजी से कहा- हमने अपना सर्वस्व देश सेवा में दे दिए। अब वे दोनों बचे हैं। उन्हें भी देश सेवा में लगा लिया जाए। तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें गले से लगाते हुए अपना बॉडीगार्ड बना लिया और उनकी पत्नी सावित्री देवी को रानी झांसी रेजिमेंट में सेविका के रूप में बहाल कर लिया था। आशा जी कहती हैं कि हमलोग उन्हें मां कहकर पुकारते थे।

सहाय ने नेहरू से की थी नेता जी की अस्थि राख स्वदेश लाने की पेशकश

द्वितीय आजाद हिंद फौज की महिलाओं की सैन्य टुकड़ी रानी झांसी रेजिमेंट की सेकेंड लेफ्टिनेंट रह चुकी श्रीमती आशा चौधरी का कहना है कि देश को आजादी मिलने के बाद पापा सिंगापुर, वियतनाम आदि कई देशों के राजदूत बनाए गए थे। एक दिन पापा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से जापान के टोक्यो स्थित रेंकोजी  बौद्ध मंदिर में रखी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पवित्र राख लाने की पेशकश की थी। उस पर पं. नेहरू ने कहा था, ठीक है मैं तुम्हें उसे लाने के लिए विशेष जंगी जहाज देता हूं। तुम जापान से उसे ले आओ। लेकिन जरा सोचो कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिजन अगर यह कह दें कि वह नेताजी की अस्थि-राख नहीं है, तब हमारी स्थिति क्या होगी? पापा का कहना था कि पं. नेहरू के इस तर्क को सुन कर वे खामोश हो गए थे।


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