अग्निहोत्र कृषि का कमाल, किसान होंगे खुशहाल
देश के कृषि वैज्ञानिकों ने खेती की इस वैदिक तकनीक को लाभप्रद बताया है।
भागलपुर (ललन तिवारी) : जलवायु परिवर्तन के कारण पर्यावरण को पहुंच रहे नुकसान से उसकी रक्षा के लिए जैविक खेती की जगह अब जैव गतिशील खेती की जरूरत महसूस की जाने लगी है। देश के कृषि वैज्ञानिकों ने खेती की इस वैदिक तकनीक को लाभप्रद बताया है। इसे देखते स्थानीय सबौर स्थित बिहार कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने ऋषि-कृषि की अवधारणा पर आधारित इस पौराणिक खेती की विधा को आज के समय में कारगर मानते हुए आजमाने की तैयारी शुरू कर दी है। उसने इसे जैव गतिशील कृषि व जैव ग्राम नामाकरण दिया है। यह पहल इस विश्वविद्यालय के अधीन किशनगंज कृषि महाविद्यालय की छात्रा आभा के सुझाव पर की जा रही है। इस विधि को अग्निहोत्र कृषि भी कहते हैं। वेदों में इसका उल्लेख है। इसे अपनाने से पर्यावरण, कृषि व किसान सभी को लाभ मिलेगा। स्वस्थ जीवन शैली पर आधारित कृषि की यह प्राचीन विधा आज समय की माग बन गई है।
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कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि आज जलवायु परिवर्तन की वजह से परंपरागत जैविक कृषि से जहां अपेक्षाकृत कम पैदावार प्राप्त होता है, वहीं इस विधि से दोगुनी व व गुणवत्तापूर्ण पैदावार प्राप्त होती है। इस विधि से चावल, गेहूं, मक्का, ज्वार, बाजरा, टमाटर, प्याज, गोभी, खीरा , आम, पपीता आदि विभिन्न तरह के अनाजों, सब्जियों व फलों की खेती की जा सकती है। देश की कुछेक जगहों में इस विधि से खेती किए जाने पर उसके बेहतर नतीजे सामने आए हैं। इस विधि से खेती करने वाले किसानों को लाभ होता है। यही वजह है कि ऑस्ट्रिया, आस्ट्रेलिया, पेरू, अर्जेटीना, जर्मनी व पोलैंड सहित दुनिया के 71 देशों में अग्निहोत्र कृषि व होमाथेरेपी पर काम चल रहा है।
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क्या है अग्निहोत्र खेती की विधि:
जुते हुए खेत या बाग में पिरामिड के आकार वाले ताम्रपात्र को स्थापित कर दिया जाता है। उस पात्र में गाय के गोबर से बने उपले में अग्नि प्रज्जवलित कर ली जाती है। हाथ में थोड़े से अक्षत (हाथ से कूटे हुए) लेकर उसमें घी की कुछ बूंदें डालकर सुबह के समय सूर्याय स्वाहा, सूर्याय इदं न मम तथा प्रजापतये स्वाहा, प्रजापतये इदं न मम मंत्र का पाठ कर उसकी आहुति की जाती है। इसी प्रकार सूर्यास्त के वक्त अग्नेय स्वाहा, अग्नेय इदं न मम व प्रजापतये स्वाहा, प्रजापतये इदं न मम मंत्रोच्चार कर आहुति की जाती है। उसके बाद खेती के दौरान पड़ने वाली अमावस्या व पूर्णिमा तिथि को आधे घंटे तक ऊं त्रयंबकम होम किया जाता है। इस दौरान मंत्रोच्चार से होने वाले स्पंदन को भी खेती के लिए लाभप्रद पाया गया है। इस बीच दोनों दिनों के हवन से जो राख बनती है उसे अलग अलग पात्र में रखा जाता है। फिर दोनों को मिलाकर खेतों में उनका छिड़काव कर दिया जाता है। यूं तो अबतक इसी विधि से खेती बारी की जा रही है। लेकिन कृषि विश्वविद्यालय ने इसमें मृत गाय की सींग का प्रयोग कर इस विधि को एक कदम आगे बढ़ा दिया है।
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ऐसे बनता है गाय की सींग का कीट नाशक
गाय की सींग को उसके गोबर की खाद और मिट्टी के साथ 40-60 सेंटीमीटर अंदर जमीन में गाड़ दिया जाता है। इसे प्राय: शरद ऋतु में गाड़ा जाता है। शीत ऋतु तक उसे सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। वसंत ऋतु में निकाल कर उसके 25 ग्राम हिस्से को 15 लीटर पानी में मिलाकर खेतों में छिड़क दिया जाता है। यह उत्तम कोटि के कीटनाशक और रोगनाशक की तरह कार्य करता है।
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क्या कहती हैं इस प्रोजेक्ट की लीडर
प्रोजेक्ट की टीम लीडर अभिलाषा कहती हैं कि यूं तो छोटे पैमाने पर अग्निहोत्र खेती पहले से हो रही है। लेकिन इसमें लगातार प्रयोग होते आ रहे हैं। हमारे प्रोजेक्ट में महज इस विधि से खेती ही नहीं पूरे गांव के कल्याण की परिकल्पना निहित है। यदि सबकुछ ठीक रहा तो भविष्य में इस नई तकनीक से किसानों को काफी फायदा होगा। विश्वविद्यालय में कुछ फसलों पर प्रयोग चल रहा है। फसलों की गुणवत्ता व स्वाद बेहतर पाई गई है। इन उत्सावर्द्धक नतीजों से टीम के मनोबल ऊंचे हैं।
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कोट :
बदलते परिवेश में अध्यात्मिक खेती समय की मांग है। इसे अपनाकर ही हम स्वस्थ पर्यावरण और स्वस्थ जीवन जी सकते हैं। विश्वविद्यालय की ओर से इस विधि पर काम करने की ठोस पहल की जा रही है।
- डॉ. अजय कुमार सिंह, कुलपति, बीएयू, सबौर , भागलपुर।