प्रखंड के बुनकरों की स्थिति बदहाल
सरकार की असंवेदनशील दृष्टि के कारण कुटीर उद्योग बदहाली का शिकार होकर बंद होते जा रहा है। प्राचीन परंपरा पर आधारित ग्रामीण कला व कारीगर का शोषण पिछले कई दशकों से जारी है।
औरंगाबाद। सरकार की असंवेदनशील दृष्टि के कारण कुटीर उद्योग बदहाली का शिकार होकर बंद होते जा रहा है। प्राचीन परंपरा पर आधारित ग्रामीण कला व कारीगर का शोषण पिछले कई दशकों से जारी है। बुनकर, काष्ठकला, पत्थरकला, कम्बल बुनाई व अन्य कला से जुड़े कलाकार राज्य सरकार की उपेक्षा के कारण या तो पलायन कर गए अथवा पलायन करने की ओर अग्रसर है। खासकर बुनकरों की दयनीय स्थिति का लाभ बिचौलिए और उनसे जुड़े सरकारी कर्मी उठा रहे हैं। सरकार की ओर से की जानेवाली घोषणा दफ्तरों तक सीमित रह जाती है। बुनकर का जो हाल आजादी पूर्व थी आज कहीं उससे ज्यादा बदहाली उनके घर है। कुटुंबा प्रखंड के दर्जनों गांव के बुनकर सरकारी उपेक्षा का दंश झेलते थक गए हैं। प्रखंड के सैदपुर नौघड़ा गांव में लगभग 30 घर के दर्जनों स्त्री पुरूष हस्तकरघा एवं खटका पर कपड़ा बुनाई कार्य से जुड़े हैं। उक्त गांव के मो. गुलाम मुस्तफा, अब्दुल रहमान, लतीफ, सलमा खातून गुलाम सरवर, अब्दुल्लाह, खुर्शीद आलम, शहनाज खातून, रूस्तम अंसारी, असलम अंसारी, दाउद अंसारी, शफी अहमद, इकबाल अंसारी, इब्राहिम अंसारी, नूर हसन, मोबीन, मुस्लिम अंसारी का परिवार दशकों से बुनकर का कार्य करते आए हैं। खानदानी कला को इन लोगों ने बखूबी जीवित रखने का प्रयास किया है। सभी बताते हैं कि बुनकर समुदाय पिछले कई दशक से इस भरोसे पर काम करते आए कि देश की माली हालत सुधरने पर उनकी भी तकदीर बदलेगी पर हुआ कुछ भी नहीं। आज बुनकर समाज पहले से भी ज्यादा तंगहाली के शिकार हैं।
बिचैलिया करते हैं कच्चे माल की आपूर्ति
प्रखंड के बुनकर को धागे व रुई की आपूर्ति नवीनगर व औरंगाबाद के बिचैलिया द्वारा की जाती है। बदले में बुने गए कपड़े वे खरीद लेते हैं। इस लेन-देन में सबसे अधिक मुनाफा बिचैलिया को मिलता है। बुनकर को अपने मेहनत का सही लाभ नहीं मिल पाता है। सभी का कहना है कि अगर सरकार कच्चे माल की आपूर्ति बुनकरों को करती और बदले में उचित दर पर उनके कपड़े को खरीद लेती तो उनकी जीवन स्तर में बदलाव आ जाता।
किन चीजों की होती है बुनाई
उक्त गांव में बुनकर लुंगी गंजी, कुर्ता का कपड़ा, चादर, तौलिया रूमाल तैयार करते हैं। इसके अलावा पाली खादी, फूलपैंट, पाजामा के कपड़े भी तैयार किए जाते हैं। काटन खादी व पाली खादी का सप्लाई कुछ लोग खादी भंडार में करते हैं।
बुजुर्ग बुनकर भी करते हैं बुनाई कार्य
गांव के 70 से 80 वर्ष के बुजुर्गों को भी चरखा अथवा खटका पर बैठे देख
लो मर्माहत हो रहे हैं। जिन अवस्था में उन्हें सुख शांति मिलती उस अवस्था में भी वे हाड़तोड़ मेहनत में लगे थे। 75 वर्षीया जुलेखा, 80 वर्षीय अली हसन व 65 वर्षीया जुबैदा के लिए शायद यह गरीबी का तकाजा है अथवा जीवन जीने का प्रयास।़
कपड़ा बुनाई में लगने वाला समय और पैसा
मो. गुलाम एवं अन्य बताते हैं कि डेढ़ मीटर कपड़े की बुनाई में आठ घंटे का समय लगता है। तैयार किए गए कपड़े के बदले उन्हें दो सौ पच्चीस रुपये मात्र मिलता है। अगर इसका आकलन फैक्ट्री में काम करनेवाले बुनकरों से किया जाए तो उसका सिर्फ दो प्रतिशत ही इन्हें मिल पाता है।
क्या है इनकी मांग
नौघड़ा गांव के बुनकर सरकार द्वारा कार्यशाला का आयोजन में सरकारी राशि की बर्बादी बताते हैं। उनकी मांग है कि पुरानी तकनीक के कारण उन्हें परेशानी होती है। सरकार ने जो बुनकरों को शे¨डग के लिए जो राशि दी है उससे अब तक शे¨डग नहीं किया जा सका।