शहर के सर्वागीण विकास की जबावदेही युवाओं के कंधों पर: राम गुलाम
औरंगाबाद। सतरहवीं सदी के उत्तरार्ध में बसा कस्बा दाउदनगर 1885 में नगरपालिका बना। उसके बाद 2002 में न
औरंगाबाद। सतरहवीं सदी के उत्तरार्ध में बसा कस्बा दाउदनगर 1885 में नगरपालिका बना। उसके बाद 2002 में नगर पंचायत और फिर 132 वर्ष बाद नगर परिषद बना। अब यह शहर द्वितीय श्रेणी का दर्जा प्राप्त कर चुका है। करीब सवा दो सौ साल में कस्बा से यह नगर बना था। शहरीकरण की यात्रा में इतना समय लगा। जब 1885 में यह नगर पालिका गठित हुआ तो तृतीय श्रेणी का शहर बना था। अब द्वितीय श्रेणी का शहर बनने के बाद प्रथम दर्जे का शहर बनने की नई यात्रा प्रारंभ हो चुकी है। नगर परिषद का चुनाव भी हो गया। नए पार्षद भी निर्वाचित हो गए। दाउदनगर नगरपालिका का इतिहास अपने भीतर कई स्वर्णिम पलों को संजोये बैठा है। एक पूर्व वार्ड आयुक्त 80 वर्षीय राम गुलाम साव जो तत्कालीन वार्ड संख्या 9 से निर्वाचित हुए थे। वे 1972 से 1977 तक वार्ड आयुक्त रहे थे। वे कुचा गली स्थित अपने जर्जर मकान में अपनी पत्नी एवं अपने परिजनों के साथ रहते हैं। बड़ा पुत्र ठेला पर मौसमी फल और सब्जी बेचकर जीवन यापन करता है तो छोटे पुत्र की नौकरी कुछ वर्ष पूर्व रेलवे में लगी है।
दूसरी बार चुनाव लड़ने की नहीं हुई हिम्मत
बुजुर्ग हो चुके रामगुलाम साव बताते हैं कि जब 1972 में वे वार्ड आयुक्त निर्वाचित हुए थे तो यमुना प्रसाद स्वर्णकार को चेयरमैन बनाने में भूमिका निभाई थी। 1977 के बाद वह चुनाव नहीं लड़ सके। बताया कि उन्होंने चुनाव लड़ा था तो वे घर-घर जाकर चावल दाल बेचने का धंधा किया करते थे। वार्ड आयुक्त बनने के बाद काम धंधा प्रभावित होने लगा। उनकी वृद्ध पत्नी माछो देवी बताती हैं कि उस समय नप कर्मचारियों को भी चावल दाल उधार में दिया करते थे, जिसका 13 सौ रुपया उस समय का बकाया ही रह गया। रामगुलाम साव बताते हैं कि जब उन्हें दोबारा चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं हुई तो उन्होंने बाल गो¨वद साव को अगले चुनाव में सहयोग किया।
सैकड़ों बेरोजगारों को दिलाया रोजगार:
वे बताते हैं कि अपने वार्ड आयुक्त रहने के दौरान उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास कर शहर के सैकड़ों बेरोजगार नौजवानों को गुमटी रखने के लिए जमीन बंदोबस्त कराया और इस प्रकार उन बेरोजगारों को रोजगार प्राप्त हुआ। उन्होंने बेरोजगारों नौजवानों के लिए जगह तो बंदोबस्त कराने में भूमिका निभाई लेकिन अपने या अपने परिजनों के नाम से कहीं भी जगह बंदोबस्त नहीं कराया जो निस्वार्थ राजनीति का एक उदाहरण कहा जा सकता है। उस वक्त नगरपालिका की आमदनी का मुख्य स्त्रोत सैरात बंदोबस्ती होती थी। नगरपालिका कर वसूली भी करती थी और नगर पालिका फंड से ही शिक्षकों को वेतन भी मिलता था और विकास कार्य कराए जाते थे। स्वच्छ थी राजनीति
वे बताते हैं कि उस समय की राजनीति स्वच्छ हुआ करती थी ।पक्ष विपक्ष तो होते थे, चेयरमैन और वाइस चेयरमैन बनाने के लिए खेमा बंदी होती थी, लेकिन विकास एवं अधिकार के मुद्दे पर सभी वार्ड आयुक्त एकजुट रहा करते थे। जब यमुना बाबू को चेयरमैन बनाने के लिए बात आई तो वार्ड आयुक्त दो गुटों में बंट गए थे। रात में दो अलग-अलग स्थानों पर बैठक हो रही थी। फिर उसके बाद इन्होंने प्रयास कर कई वार्ड आयुक्तों को यमुना बाबू के पक्ष में लाया और यमुना बाबू चेयरमैन निर्वाचित हुए थे। सही नहीं है व्यवस्था
आज की स्थिति देखकर वे कहते हैं कि आज व्यवस्था बिल्कुल ही सही नहीं है। एक समय था जब घर का चबूतरा भी नगर पालिका से परमिशन लेकर बनाया जाता था। अब स्थिति हो गई है कि सड़क की जमीन पर भी मकान बन जा रहे हैं और कोई देखने वाला नहीं है। यह अतिक्रमण का मुख्य कारण है। आम जनता को दाखिल खारिज जैसे कार्यों के लिए दौड़ लगानी पड़ती है। अब तो काफी विकास राशि सरकार द्वारा दिया जा रहा है जिससे शहर का सर्वांगीण विकास हो सकता है लेकिन विकास की इच्छा शक्ति नहीं दिख रही है। जी रहे गुमनामी के अंधेरे में
रामगुलाम साव की चर्चा सुनकर जब दैनिक जागरण प्रतिनिधि कूचा गली की विभिन्न गलियों से गुजरते हुए उनके घर पर पहुंचा तो वे घर के बाहर एक कुर्सी लगाकर बैठे मिले। उनका पुराना मकान ईंट का बना हुआ है जिसमें आंगनबाड़ी केंद्र भी चलता है। मकान के भीतर के पुराना ईंट के बने घर के कई हिस्से टूटे-फूटे दिखे। उन्होंने खुलकर अपना अनुभव साझा किया और स्पष्ट कहा कि जो भी जीत कर पार्षद बने हैं उन्हें नई जिम्मेवारी मिली है। आशा करते हैं कि आम जनता की उम्मीदें पूरी हो सकें और शहर का सर्वांगीण विकास हो सके। इसकी महत्वपूर्ण जवाबदेही आज के युवाओं पर है।