चिंतन का विषय
राज्य में शिक्षा व्यवस्था पटरी से उतरी हुई है। इसमें सुधार के लिए जिस इच्छाशक्ति के साथ प्रयास होने चाहिए, नहीं हो रहे हैं।
उत्तराखंड में विद्यालयी शिक्षा परिषद की बारहवीं और दसवीं परीक्षा में छात्र-छात्रओं की सफलता का आंकड़ा भले ही ऊंचा उठा हो, लेकिन धरातलीय स्थिति कई सवाल खड़े कर रही हैं।इस बार बोर्ड का परीक्षाफल पिछले साल के मुकाबले तकरीबन पौने तीन से चार फीसद तक ज्यादा जरूर रहा, लेकिन गुणवत्ता का जो बुनियादी प्रश्न पहले खड़ा था, आज भी वैसा ही है। सरकारी स्कूलों के हालत तो और चिंताजनक हैं। गुणवत्ता का सवाल यूं ही नहीं उठ रहा, बल्कि आंकड़े खुद-ब-खुद इसकी चुगली कर रहे हैं।
बारहवीं कक्षा में केवल दो फीसद बच्चे ही पिचहत्तर फीसद से ज्यादा अंक बटोर पाए। बाठस फीसद बच्चे पैंतालीस से साठ प्रतिशत के बीच में ही अटक कर रह गए। इससे नीचे अंक लाने वालों की आंकड़ा भी सवा सोलह फीसद के आसपास है। हाईस्कूल के नतीजों में भी सुकून देने जैसा कुछ नहीं दिखा। कहा जा सकता है कि सुगम और दुर्गम क्षेत्रों में शिक्षा की गुणवत्ता के मोर्चे पर सरकारी स्कूलों को मुंह की ही खानी पड़ी है। बोर्ड की मेरिट सूची इसका प्रमाणित दस्तावेज है। हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की टॉप फाइव मेधावियों की सूची में एक ही सरकारी स्कूल का नाम दर्ज है।
दरअसल, राज्य बोर्ड ने परिणामों में सुधारों के लिए सीबीएसई पैटर्न तो अपना लिया, लेकिन पठन-पाठन का स्तर पारंपरिक ही रखा हुआ है। हालांकि बार-बार दावा यही किया जाता रहा कि गुणवत्ता में सुधार के लिए गंभीर प्रयास किये जा रहे हैं। इसके लिए न केवल परीक्षा का पैटर्न बदला गया, बल्कि पाठ्यक्रम में बदलाव भी किये गए। हो सकता है विभागीय दस्तावेजों को पलटें तो सरकार की इस बात में सच्चाई हो, पर नतीजे फिलहाल निराश ही कर रहे हैं। यह अलग बात है कि महकमा सीधे-सीधे इस सच को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है।
अंकों का जाल बट्टा बुनकर यह जताने का प्रयास किया जा रहा है कि बोर्ड साल-दर-साल सुधार की तरफ बढ़ रहा है। सरसरी तौर पर देखें तो ओवरऑल आंकड़ों की कहानी कुछ ऐसी ही निकलकर आ रही है, लेकिन शिक्षा की समझ रखने वालों का नजरिया एकदम उलट है। वह इसे आंखों में धूल झोंकना जैसा मान रहे हैं। यह कहने में कोई हिचक नहीं कि राज्य में शिक्षा व्यवस्था पटरी से उतरी हुई है। इसमें सुधार के लिए जिस इच्छाशक्ति के साथ प्रयास होने चाहिए, नहीं हो रहे हैं। सियासत भी इसके लिए कम दोषी नहीं। अव्वल तो गंभीरता के साथ प्रयास हुए नहीं, लेकिन जब कभी हुए भी तो नेताओं ने इनकी हवा निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जो कुछ अभी तक हुआ और जो हो रहा है, उसे कतई अच्छा नहीं कहा जा सकता। यह कैसे भूला जा सकता है कि आज के नौनिहाल हमारा कल का भविष्य हैं। अगर उनके प्रति हम इस तरह का नजरिया रखेंगे तो क्या होगा, सहज ही समझा जा सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए सरकार बोर्ड परिणामों के साथ ही दूसरे तमाम पहलुओं पर मंथन करके भविष्य के लिए ठोस रोड मैप तैयार करेगी।
(स्थानीय संपादकीय, उत्तराखंड)