संस्कृत के बिना संस्कृति को बचाना मुश्किल : तरुण विजय
गोरखपुर : पूर्व सांसद और स्तंभकार तरुण विजय का कहना है कि हमारी भाषा और संस्कृति हम
गोरखपुर : पूर्व सांसद और स्तंभकार तरुण विजय का कहना है कि हमारी भाषा और संस्कृति हमें जीवन जीना सिखाती है। ऐसे में संस्कृति को कायम रखने के लिए इसकी आधारभूत भाषा को हर हाल में जिंदा रखना होगा। यानी संस्कृति की भाषा संस्कृत को कर्मकांड से उठाकर राजभाषा का दर्जा देना होगा।
पूर्व सांसद बतौर मुख्य वक्ता ब्रह्मालीन महंत दिग्विजयनाथ व अवेद्यनाथ के पुण्यतिथि समारोह के तहत गोरखनाथ मंदिर परिसर के दिग्विजयनाथ स्मृति सभागार में 'संस्कृति और संस्कृत' विषय पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने आगे कहा कि संस्कृत को अगर आगे बढ़ाना है तो उसे रोजगार से जोड़ना होगा। संस्कृत पढ़ने-पढ़ाने वालों को पुरस्कृत करना होगा। सिर्फ इतना ही नहीं संस्कृत को ज्ञान, विज्ञान, दुकान और विधान की भाषा बनाना होगा। ऐसा करके ही हम भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रख पाएंगे। इजराइल और चीन का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि इन दोनों देशों ने अपनी भाषा और संस्कृत को संजो करके ही दुनिया में अलग पहचान बनाई है। भारत का आम आदमी ज्ञान को जीता है और देश में इसकी भाषा संस्कृत है। यदि संस्कृत नहीं रहेगी तो हम संस्कृति को भी नहीं बचा सकेंगे। भारतीय संस्कृति की रक्षा की आवश्यक शर्त है संस्कृत भाषा की रक्षा।
तरुण विजय ने कहा कि गोरक्षपीठ संस्कृति और संस्कृत की रक्षक पीठ है। यह पीठ हमें बंकिम चंद्र चटर्जी के आनंद मठ की याद दिलाती है। दरअसल यह पीठ वंदेमातरम को ही जीती है। पीठ ने न केवल संस्कृत और संस्कृति की रक्षा के लिए आंदोलन छेड़ा है बल्कि भारतीय धर्म और भारतीय भाषाओं की रक्षा का नेतृत्व भी किया है। विशिष्ट वक्ता प्राचीन इतिहास पुरातत्व एवं संस्कृत विभाग की पूर्व अध्यक्ष प्रो. विपुला दूबे ने कहा कि भारत की आत्मा संस्कृति है और संस्कृति की आत्मा संस्कृत में बसती है। राष्ट्र, जीवन, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए संस्कृत की रक्षा आवश्यक है। प्रो. शिवाजी सिंह ने संस्कृति के मूल संस्कृत को समाप्त करने के लिए चलाए जा रहे दुष्चक्र का जिक्र किया और इस पर चिंता जताई। प्रो. यूपी सिंह ने संस्कृत को सनातन संस्कृति का आधार स्तंभ बताया। संगोष्ठी का संचालन डा. अविनाश प्रताप सिंह ने किया।
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संस्कृत से अक्षुण्य रहेगी भारतीय संस्कृति
'संस्कृति और संस्कृत' विषय पर आयोजित संगोष्ठी को बतौर मुख्य अतिथि संबोधित करते हुए अरैल प्रयाग से पधारे स्वामी गोपाल जी ने कहा कि संस्कृति, भारत, मानवता, करुणा, दया और अ¨हसा की वाणी है। साथ ही ज्ञान व विज्ञान की भी वाणी है। ऐसी समृद्ध भाषा से ही हमारी संस्कृति विकसित हुई है। यदि इस पर आंच आएगी तो उसका असर सीधे संस्कृति पर पड़ेगा। ऐसे में संस्कृति को अक्षुण्य बनाए रखने के लिए संस्कृत भाषा को जीवन का हिस्सा बनाना होगा। स्वामी गोपाल ने महंत दिग्विजयनाथ के उस संबोधन की याद दिलाई, जिसमें उन्होंने संस्कृत भाषा को समस्त ज्ञान और विज्ञान का वृहद भंडार बताया था। महंत दिग्विजयनाथ ने कहा था कि इस देश के नागरिक तब तक प्रथम श्रेणी वैज्ञानिक नहीं बन सकते जबतक वह संस्कृत में उपलब्ध प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथों का अध्ययन नहीं कर लेते। स्वामी गोपाल ने कहा कि महंत दिग्विजयनाथ व महंत अवेद्यनाथ जीवन भर संस्कृत व संस्कृति की रक्षा और उत्थान में लगे रहे। पुण्यतिथि पर इसकी रक्षा का संकल्प लेकर हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित कर सकते हैं।
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हिमालय से सागर तक है संस्कृत
जगदगुरु रामानंदाचार्य स्वामी रामानंद दास ने कहा कि भारत की दुनिया में दो कारण से ही प्रतिष्ठा है। एक संस्कृति और दूसरी संस्कृत। भारतीय संस्कृति के वांगमय मौलिक रूप से संस्कृत भाषा में है। संस्कृत भाषा और उसमें निहित संस्कृति का विस्तार हिमालय से लेकर सागर तक था। पूर्व दिशा में कंबोडिया, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि देशों में भी संस्कृत के माध्यम से भारतीय संस्कृति की उपस्थिति है।