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अधिकार नहीं जताते पूजा में करते हैं सिर्फ अर्पण : श्री श्री रविशंकर

पूजा नकल, सम्मान, खेल, प्रेम सब का सम्मिश्रण है। पूजा में अधिकार नहीं जताते बल्‍क‍ि सिर्फ अर्पण करते हैं। जानें आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर जी से पूजा का अर्थ...

By shweta.mishraEdited By: Published: Tue, 18 Jul 2017 02:12 PM (IST)Updated: Tue, 18 Jul 2017 02:12 PM (IST)
अधिकार नहीं जताते पूजा में करते हैं सिर्फ अर्पण : श्री श्री रविशंकर
अधिकार नहीं जताते पूजा में करते हैं सिर्फ अर्पण : श्री श्री रविशंकर

 सृष्टि का सम्मान

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सृष्टि का सम्मान करो। एक पेड़ को भी सम्मान के साथ देखो। पेड़ के अस्तित्व के लिए कृतज्ञ रहो। वह हमारी सांसों द्वारा निकले जहर को लेकर वायु को शुद्ध करता है। क्या आपने ऐसा कभी सोचा है कि पेड़ आपके हैं? अगर सृष्टि का सम्मान करेंगे तो यह अनुभव करेंगे कि यह सभी आपके हैं।
 

पूजा से पनपती है भक्ति

सम्मान करना दिव्य प्रेम का लक्षण है। इसी सम्मान को पूजा कहते हैं। पूजा से भक्ति पनपती है। जो कुछ प्रकृति हमारे लिए करती है, उसी की नकल हम पूजा की विधि में करते हैं। परमात्मा भिन्न-भिन्न रूपों में हमारी पूजा कर रहा है। हम पूजा द्वारा वह सब ईश्वर को वापस अर्पित करते हैं। पूजा में जो फूल चढ़ाए जाते हैं, वह फूल प्रेम के प्रतीक हैं। ईश्वर हमसे प्रेम करने अलग-अलग रूपों में आते हैं- माता-पिता, पति-पत्नी, मित्र, बच्चे आदि अनेक रूपों में। वही प्रेम गुरु के रूप में आकर हमें परमात्मस्वरूप तक पहुंचाता है जोकि हमारा सच्चा स्वभाव है। जिस प्रेम से हमारा जीवन फल-फूल रहा है, उस प्रेम को मान्यता देना ही पूजा में फूल को अर्पण करना है। परमात्मा हमें हरेक मौसम में तरह-तरह के फल देते हैं, हम फलों को उन्हें अर्पित करते हैं। 

पूर्ण कृतज्ञता और सम्मान भाव ही है अर्चना

प्रकृति हमें भोजन देती है, हम बदले में भगवान को अनाज चढ़ाते हैं। इसी तरह प्रकृति में चांद व सूरज रोज उदय और अस्त होकर हमें लगातार प्रकाश देते हैं। उसी की नकल करके हम कपूर व दीपक की आरती करते हैं। सुगंध के लिए धूप जलाते हैं। पूजा में पांचों इंद्रियों का पूरे भाव से प्रयोग करते हैं। पूर्ण कृतज्ञता और सम्मान भाव ही अर्चना है। आप ने बच्चों को देखा होगा कि वह अपने छोटे-छोटे बर्तनों से खेलते हैं और चाय व रोटी बनाते हैं। मां के पास आकर बोलते हैं, 'मां आप चाय पीजिए' वह खाली कप से भी ऐसे कल्पना करते हैं जैसे सचमुच चाय पी रहे हैं। वह आपके साथ खेल खेलते हैं। जैसा आप उनके साथ करते हैं, वह भी वैसा ही आपके साथ करते हैं। वह गुडिय़ा को सुलाते हैं, खाना खिलाते हैं, नहलाते हैं। 

नकल, सम्मान, खेल, प्रेम सब का सम्मिश्रण है पूजा

ऐसे ही, पूजा में हम ईश्वर के साथ वही करते हैं जो ईश्वर हमारे साथ कर रहा है। पूजा नकल, सम्मान, खेल, प्रेम सब का सम्मिश्रण है। अधिकतर हम जिससे प्रेम करते हैं, उसको पाना चाहते हैं। पाने की चाह उस सुन्दर वस्तु को कुरूप कर देती है। पूजा में इसके विपरीत होता है। पूजा में आदर, सम्मान के साथ स्वयं समर्पित हो जाते हैं। अधिकार जताने के ठीक विपरीत हम पूजा में अर्पण करना चाहते हैं। 

भोजन करता अंदर विराजमान भगवान को भोग लगाना

अधिकार जताने की चाह के कारण अधिकतर आपके सम्बंध भी पूर्णत: विकसित नहीं हो पाते। हम मांगना शुरू कर देते हैं। संबंधों में लोग अधिकांशत: कहते हैं, 'मैंने तो आपके लिए इतना किया है- बदले में आपने मेरे लिए क्या किया?' मांग, सम्मान करने के विपरीत है। संबंध को बनाए रखने के लिए उसमें सम्मान का होना आवश्यक है। सृष्टि का सम्मान करो। एक पेड़ को भी सम्मान के साथ देखो। पेड़ के अस्तित्व के लिए कृतज्ञ रहो। वह हमारी सांसों द्वारा निकले जहर को लेकर वायु को शुद्ध करता है। क्या आपने ऐसा कभी सोचा है कि पेड़ आपके हैं? सूरज, चांद, वायु, जल, पृथ्वी सब आपके हैं? तारे-सितारे आपके हैं? सारे व्यक्ति आपके हैं? अगर सृष्टि का सम्मान करेंगे तो यह अनुभव करेंगे कि यह सभी आपके हैं। अपने शरीर का सम्मान करो। भोजन करते समय महसूस करो कि वह खाना आप अपने अंदर विराजमान भगवान को भोग लगा रहे हैं। यह भी एक पूजा है।

गुरु को सबकुछ अर्पण करके मुक्त हो जाओ

भक्ति तुम्हारा स्वभाव है। अपने स्वभाव में रहकर विश्राम करने से कोई द्वंद नहीं रहता, पर अक्सर तुम द्वंद महसूस करते हो। तुम्हें अपने किसी विकार के प्रति या किसी बुरे कृत्य के प्रति बुरा लगता है। गुरु वह हैं, जो तुम्हारे ऐसे सारे बोझ उठा लेते हैं और तुम्हारे अंदर भक्ति की लौ जला देते हैं। अपना गुस्सा, कुंठा, बुरी भावनायें, अच्छी भावनायें सबकुछ गुरु को अर्पण कर दो। सबकुछ अर्पण करके तुम मुक्त हो जाते हो।


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