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जब भगवान श्रीकृष्‍ण ने धृतराष्‍ट्र को दी दिव्‍य दृष्टि, भयभीत हो उठा था हस्तिनापुर का दरबार

भगवान श्रीकृष्‍ण के बिना महाभारत भी अधूरा है। गीता का ज्ञान हो या फिर धृतराष्‍ट्र को दिव्‍य दृष्‍टि देना। श्रीकृष्‍ण ने हर जगह अपनी जिम्‍मेदारी का निर्वाह किया।

By abhishek.tiwariEdited By: Published: Mon, 22 May 2017 11:21 AM (IST)Updated: Mon, 22 May 2017 11:21 AM (IST)
जब भगवान श्रीकृष्‍ण ने धृतराष्‍ट्र को दी दिव्‍य दृष्टि, भयभीत हो उठा था हस्तिनापुर का दरबार
जब भगवान श्रीकृष्‍ण ने धृतराष्‍ट्र को दी दिव्‍य दृष्टि, भयभीत हो उठा था हस्तिनापुर का दरबार

श्रीकृष्‍ण गए थे युद्ध टालने

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महाभारत का युद्ध पांडवों और कौरवों के बीच लड़ा गया था। पहले वनवास और फिर अज्ञातवास पूरा करने के लिए पांडवों ने जब राज्‍य में हिस्‍सा मांगा तो दुर्योधन ने जमीन का एक टुकड़ा तक देने से मना कर दिया था। दुर्योधन के अंदर काफी अहंकार आ गया था। उसने सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने से मना कर दिया, जिसके परिणामस्‍वरूप महाभारत युद्ध लड़ा गया। यह युद्ध कितना विनाशकारी होगा, इसका अंदाजा किसी को नहीं था बजाए भगवान श्रीकृष्‍ण के। श्रीकृष्‍ण युद्ध की विभीषिका का पहले से आभास था। ऐसे में उन्‍होंने युद्ध टालने का अंतिम प्रयास किया।

दुर्योधन ने किया अपमान

श्रीकृष्‍ण पांडवों के दूत बनकर दुर्योधन को समझाने के लिए हस्‍तिनापुर पहुंचे। वहां उन्होंने दुर्योधन को बहुत समझाया कि वह पांडवों को पांच गांव ही देकर संधि कर ले परन्तु हठधर्मी दुर्योधन ने उनकी सब बातें अस्वीकार कर दीं। इतना तक तो ठीक था लेकिन दुर्योधन अहंकार में इतना चूर था कि उसने श्रीकृष्‍ण को पकड़ कर कारागार में डालने का निश्‍चय कर लिया। दुर्योधन की यह बात जानकर श्रीकृष्‍ण ने अपना विराट रूप प्रकट किया। उन्‍होंने दुर्योधन से कहा, 'हे मूर्ख दुर्योधन, तू मुझे अकेला मान रहा है इसलिए मेरा तिरस्‍कार कर रहा है। तू मुझे पकड़ना चाहता है यह तेरा अज्ञान है। अब मैं तुझे अपना वास्‍तविक स्‍वरूप दिखाता हूं।

भगवान ने दिखाया अपना विराट रूप

इसके बाद भगवान श्रीकृष्‍ण ने अपना विराट रूप धारण कर पूरे ब्रह्मांड को चकित कर दिया। श्रीकृष्‍ण के इस विराट रूप में विद्युत के समान कान्ति वाले तथा अंगूठे के बराबर छोटे शरीर वाले देवता आग की लपटें छोडऩे लगे। उनके ललाट में ब्रह्मा और वक्ष स्थल में रुद्र देव विद्यमान थे। समस्त लोकपाल उनकी भुजाओं में स्थित थे। उनके मुख से अग्‍नि की लपटें निकल रही थीं। आदित्य, साध्य, वसु, अश्विनी कुमार, इंद्र सहित मरुद्गण, विश्वेदेव, यक्ष, गंधर्व, नाग और राक्षस भी उनके विभिन्न अंगों में प्रकट हो गए। उनकी दोनों भुजाओं से बलराम और अर्जुन प्रकट हो गए। उनकी दाहिनी भुजा में अर्जुन और बाईं में हलधर बलराम विद्यमान थे। भीमसेन, युधिष्ठिर तथा नकुल-सहदेव भगवान के पृष्ठभाग में स्थित थे। 

धृतराष्‍ट्र को ऐसे मिले दिव्‍य नेत्र

भगवान श्रीकृष्ण के उस स्वरूप को देखकर समस्त राजाओं के मन में भय समा गया और उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए। द्रोणाचार्य, भीष्म, परम बुद्धिमान विदुर, महाभाग संजय तथा तपस्या के धनी महर्षियों को भगवान जनार्दन ने स्वयं ही दिव्य दृष्टि प्रदान की थी जिससे वे उनका दर्शन करने में समर्थ हो सके थे। तब धृतराष्ट्र ने प्रार्थना की कि भगवन्! मेरे नेत्रों का तिरोधन हो चुका है परन्तु आज मैं आपसे पुन: दोनों नेत्र मांगता हूं। केवल आपका दर्शन करना चाहता हूं आपके सिवा और किसी को मैं नहीं देखना चाहता। तब महाबाहु जनार्दन ने धृतराष्ट्र से कहा, ‘‘कुरुनंदन! आपको दो अदृश्य नेत्र प्राप्त हो जाएं।’’ इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से उनके विश्वरूप का दर्शन करने के लिए धृतराष्ट्र को भी नेत्र प्राप्त हो गए।


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