पंजाबी लेखिका टिवाना ने सिख दंगे के विरोध में लौटाया पद्मश्री
कहा, न्याय और सच के लिए खड़े हुए लोगों की हत्या से हम दुनिया और भगवान की नजरों में शर्मिंदगी झेल रहे हैं।
नई दिल्ली। देश में बढ़ रही कथित असहिष्णुता के विरोध में लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाने का सिलसिला जारी है। मंगलवार को पंजाबी लेखिका दिलीप कौर टिवाना ने 1984 के सिख दंगे और मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा के विरोध में पद्मश्री सम्मान लौटा दिया। केंद्र सरकार को लिखे पत्र में टिवाना ने कहा कि गौतम बुद्ध और गुरु नानक की धरती पर सिखों व मुसलमानों के विरुद्ध अत्याचार हमारे समाज के लिए अपमानजनक है।
टिवाना को 2004 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वालों में मंगलवार को कन्नड़ लेखक प्रोफेसर रहमत तारिकेरी और हिंदी के अनुवादक चमन लाल का नाम भी जुड़ गया। इस तरह अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों की संख्या दो दर्जन हो गई है। वहीं पांच लेखक साहित्यिक संस्था की सामान्य परिषद से इस्तीफा दे चुके हैं। मराठी लेखिका प्रदन्या पवार ने भी महाराष्ट्र सरकार द्वारा दिए गए सभी पुरस्कार लौटाने का फैसला किया है।
इस बीच, संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष शेखर सेन ने कहा है कि दिशाहीन आक्रोश किसी समस्या का समाधान नहीं है। उन्होंने कहा कि किसी भी सृजनशील व्यक्ति के लिए प्रतिक्रिया पहला धर्म है। लेकिन यह दिशाहीन नहीं होना चाहिए और उसका निशाना अनुपयुक्त व्यक्ति अथवा संस्था नहीं होना चाहिए। कई लेखकों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए जाने के बाद सोमवार को थियेटर कलाकार माया कृष्ण राव ने संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार लौटा दिया था।
पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों की संख्या 25 हो गई
इस बीच कन्नड़ के लेखक प्रोफेसर रहमत तारिकेरी ने अपना साहित्य अकादमी अवॉर्ड लौटा दिया। उन्होंने यह कदम लेखक कलबुर्गी, रेशनलिस्ट नरेंद्र दाभोलकर तथा गोविंद पनसारे की हत्या के खिलाफ उठाया। इस बीच कृष्णा सोबती और अरुण जोशी ने भी साहित्य अकादमी अवॉर्ड लौटा दिया है। साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों की संख्या 25 हो गई है। वहीं पांच लेखक साहित्यिक संस्था के पद से इस्तीफा दे चुके हैं।
'कुछ लेखकों को सेकुलरिज्म की बीमारी है। इन बुद्धिजीवियों को सिख दंगे के अपराधियों से सम्मान लेते हुए बुरा नहीं लगा था। कश्मीर घाटी से जब हिंदुओं को खदेड़ा जा रहा था, उस वक्त इन लोगों ने एक शब्द नहीं कहा।'
-पांचजन्य के संपादकीय का अंश