गंगा सफाई: हुजूर अब और बयान नहीं, एक्शन की है जरूरत
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने गंगा में कचरा फेंकने वालों पर जुर्माना लगाने और नदी के सौ मीटर के दायरे में निर्माण कार्यो पर प्रतिबंध का फैसला किया है।
ज्ञानेंद्र रावत
आज गंगा की प्रदूषण मुक्ति का सवाल उलझ कर रह गया है। वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्राथमिकताओं में सर्वोपरि है, लेकिन राजग सरकार के तीन साल बीतने के बावजूद गंगा की तस्वीर में कोई सार्थक बदलाव नहीं आ पाया है। वह बात दीगर है कि गंगा की सफाई को लेकर केंद्रीय मंत्रियों ने बयानों के मामले में कीर्तिमान बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। इस मामले में केंद्रीय जल संसाधन, गंगा संरक्षण एवं नदी विकास मंत्री उमा भारती शीर्ष पर हैं। जबकि हकीकत यह है कि गंगा की सफाई को लेकर सरकार की हर कोशिश बेकार रही है।
गंगा एवं अन्य नदियों की बदहाली को लेकर जितनी चिंता और दुख एनजीटी ने व्यक्त किया है, सरकारों को चेतावनियां दी हैं, निर्देश दिए हैं, उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह कम है। बीते दो वर्षो में नेशनल ग्रीन टिब्यूनल (एनजीटी) की लाख कोशिशों और सरकार द्वारा सात हजार करोड़ रुपये की राशि गंगा सफाई पर खर्च किए जाने के बावजूद नदी सफाई का काम तनिक भी नहीं हुआ है। गंगा आज भी मैली है।
सरकार दावा भले कुछ भी करे, लेकिन असलियत में गंगा अपने मायके उत्तराखंड में ही मैली है। हरिद्वार में शहर का तकरीबन आधे से ज्यादा सीवरेज बिना शोधन सीधे गंगा में गिर रहा है। घाटों पर जगह-जगह कूड़े के ढेर दिखाई देते हैं। हर की पौड़ी सहित तमाम घाटों से गंदगी सीधे गंगा में गिराई जाती है। यह सच है कि गंगा में आज भी रोजाना बारह हजार एमएलडी सीवेज गिर रहा है। गंगा में आर्सेनिक, जस्ता सहित जानलेवा प्रदूषकों का स्तर लगातार बढ़ रहा है। गंगा में क्रोमियम का स्तर तो तय मानक से 70 गुणा ज्यादा है। पारे की बढ़ोतरी के चलते जलजीवों के अस्तित्व पर ही संकट मंडराने लगा है।
उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों से गंगा में तकरीब 760 औद्योगिक इकाइयों का रसायनयुक्त कचरा सीधे प्रवाहित किया जा रहा है। अकेले उत्तर प्रदेश में गंगा किनारे की तकरीब छह हजार हेक्टेयर की जमीन पर अतिक्रमण कर अवैध निर्माण किया गया है। नतीजतन वहां बने घरों का कचरा और मलयुक्त गंदगी गंगा में बहायी जा रही है। वह चाहे बिजनौर हो, ब्रजघाट हो, अमरोहा हो, संभल हो, बुलंदशहर का स्याना इलाका हो, कछला हो, कानपुर हो, बलिया हो, गाजीपुर हो, चंदौली हो या मिर्जापुर, या फिर प्रधानमंत्री का चुनाव क्षेत्र बनारस हो या पटना, बक्सर, खगड़िया, कटिहार, मुंगेर, भागलपुर या गंगा किनारे बसा कोई भी शहर ही क्यों न हो, कहीं भी सीवर की गंदगी, कचरा गंगा में गिरने से रोकने का इंतजाम नहीं है।
बनारस में गंगा किनारे के घाट भले ही साफ दिखाई देते हों, लेकिन वहां घाटों पर बने शौचालयों की गंदगी, कुंटलों पूजन सामग्री, नौ नालों के जरिये दो सौ एमएलडी सीवरेज सीधे गंगा में गिराया जा रहा है। नतीजतन गंगा का पानी दूषित है। वह जानलेवा है। वह पुण्य नहीं, मौत का सबब है। ऐसी हालत में गंगा की शुद्धि की आशा बेमानी सी प्रतीत होती है। बीते दिनों एनजीटी ने अपने अहम फैसले में कहा है कि गंगा में कचरा फेंकने वाले पर 50 हजार रुपये का पर्यावरण जुर्माना लगाया जाएगा। टिब्यूनल ने गंगा नदी के किनारे के 100 मीटर की दूरी तक के इलाके को ‘गैर निर्माण जोन’ घोषित किया है। यह फैसला अभी हरिद्धार और उन्नाव के बीच बहने वाली गंगा नदी के लिए लागू होगा। इसके मुताबिक गंगा तट के 100 मीटर के दायरे में कोई निर्माण कार्य नहीं किया जा सकेगा। ऐसा करने वाले के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।
जस्टिस स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली एनजीटी की पीठ ने पर्यावरणविद् एमसी मेहता द्वारा 1985 में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका पर जो 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने एनजीटी को सौंपी, उस पर दिए अपने 543 पृष्ठ के ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि उसके फैसले के पालन की निगरानी करने के लिए इस बाबत रिपोर्ट पेश करने के लिए पर्यवेक्षक समिति का गठन किया है। यह समिति नियमित अंतराल पर रिपोर्ट पेश करेगी। गौरतलब है कि एनजीटी ने इससे पूर्व गंगा बेसिन में कचरा फेंक रहे बिजली संयत्रों से पूछा था कि उन्होंने नदी को प्रदूषित होने से रोकने के लिए क्या उपाय किए हैं। साथ ही एनजीटी की जस्टिस स्वतंतर कुमार की पीठ ने पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन और बिजली मंत्रलय से कहा था कि वे इस बाबत बैठक करें और अपनी टिप्पणियों के साथ हलफनामा दाखिल करें।
एनजीटी के इस फैसले से कोई अभूतपूर्व बदलाव आएगा, इसमें संदेह है। कारण एनजीटी के अनुसार गंगा तट के 100 मीटर की दूरी तक कोई विकास कार्य या निर्माण कार्य नहीं हो सकेगा, लेकिन उसके बाद न तो किसी निर्माण या विकास कार्य पर पाबंदी है, उस दशा में वहां किसी भी तरह का निर्माण किया जा सकेगा, उस पर कोई रोक नहीं होगी और उस पर जुर्माना भी नहीं किया जा सकेगा। मगर वहां की गंदगी, कचरा कहां जाएगा। वहां औद्योगिक प्रतिष्ठान की स्थापना के बारे में भी कोई रोक नहीं है। उसके विषाक्त अवशेष के निस्तारण की व्यवस्था कौन करेगा, इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी। इसका इस फैसले में कोई जिक्र नहीं है। स्वाभाविक है प्रदूषण में बढ़ोतरी होगी।
सर्वविदित है कि जब नदियों में बाढ़ आती है तो वह अपने बहाव क्षेत्र के साथ-साथ मीलों दूर तक के इलाके को अपनी चपेट में ले लेती हैं। उस दशा में वह उस समूचे इलाके की गंदगी को बहा ले जाती हैं। नतीजतन नदी तो गंदी ही रहेगी। ऐसी स्थिति में इस फैसले से कोई बड़ा बदलाव तो आने वाला नहीं है। इस तरह के फैसले पहले भी आते रहे हैं। इस बाबत बहुतेरे कदम भी पहले उठाए गए हैं लेकिन गंगा साफ नहीं हुई। हां इस फैसले से सरकार की गंगा किनारे सौंदर्यीकरण की योजना पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
जाहिर है सौंदर्यीकरण की इस योजना से भी गंगा तट कंक्रीट के जंगल में बदल जाता। इससे गंगा की सफाई का दूर-दूर का कोई नाता नहीं है। फिर गंगा के मायके यानी उत्तराखंड में गंगा पर तकरीब 350 बांधों के निर्माण की योजना से गंगा न तो अविरल रह पाएगी और न ही शुद्ध। उसमें धीरे-धीरे पानी कम होता जाएगा और एक दिन वह मर जाएगी। जबकि पर्यावरण के नजरिये से बांध विकास नहीं, विनाश के प्रतीक हैं।
हालात गवाह हैं कि सरकार विकास रथ पर आरूढ़ है। उसे न पर्यावरण की चिंता है और न गंगा की। असल में एनजीटी के इस ‘गैर निर्माण जोन’ के फैसले से कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला। असल मुद्दा तो प्रदूषण का है, वह चाहे रसायनयुक्त औद्योगिक अपशिष्ट हो, सीवरेज का मसला हो या फिर गंदगी जब तक इनका गंगा में गिरना बंद नहीं किया जाएगा, गंगा की शुद्धि का सवाल अनसुलझा ही रहेगा। यदि यही हाल रहा तो इसमें दो राय नहीं कि देश के 11 राज्यों की तकरीब 40 फीसद आबादी की जीवनदायिनी गंगा दिन-ब-दिन मरती चली जाएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)