जब इस 'शेर' की दहाड़ से थर्राये थे गोरे
गिरधारी अग्रवाल, बक्सर : सनं् 1857 की क्रांति में 75 वर्षीय योद्धा ने अपने युद्ध कौशल व पराक्रम से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये। इस युद्धवीर ने 25 जुलाई 1857 से लेकर 23 अप्रैल 1858 तक के इस नौ माह के युद्ध में पंद्रह भयानक लड़ाईयां लड़ी। इनका नाम था बाबू कुंवर सिंह। इस भोजपुरी शेर की गौरव गाथा आज भी यहां के युवाओं को प्रेरित करती है।उज्जैनिया क्षत्रियों के वंशज बाबू साहबजादा सिंह व इनकी धर्म पत्नी पंचरत्न कुंवर के द्वितीय पुत्र बाबू कुंवर सिंह का जन्म सनं् 1782 ई. में जगदीशपुर गांव में हुआ था। बचपन से ही वे नटखट, उत्साही व खेल प्रिय थे। रात-दिन खेल खेलने, बंदूक चलाने व घोड़ा दौड़ाने का नशा सवार रहता था। कबड्डी खेलना, छुरी-भाला व कटारी चलाने का अध्ययन करना इनका प्रिय शौक था।
अंग्रेजों ने माना लोहा
इतिहासकारों ने लिखा है कि सनं् 1857 के विद्रोही नेताओं में युद्ध विद्या की कला की योग्यता रखने वाले कुंवर सिंह से बढ़कर कोई नेता नहीं था। अल्प-साधन, अल्प-संगठन, अल्प सैन्य कला और धनाभाव में भी इन्होंने अवरोधों व विरोधियों के होते हुए भी अपने को सुरक्षित रखा। पचहत्तर साल की अवस्था में उन्होंने जो स्फूर्ति जन्य कार्यो का प्रदर्शन किया, उसका लोहा अंग्रेज भी मानते थे।
आजमगढ़ पर जमाया था कब्जा
सनं् 1857 के नवंबर माह में कानपुर की एक क्रांतिकारी युद्ध में बाबू कुंवर सिंह की एक महती भूमिका रही। इस दौरान इन्होंने तात्या टोपे, नवाब अली बहादुर, नवाब तफच्चुल हुसेन व राय साहब पेशवा के अधीन फिरंगियों से लोहा लिया। इस शौर्य पुरुष ने 26 मार्च 1858 को आजमगढ़ पर पूर्ण रूप से कब्जा कर लिया।
'तोप नहीं है तो क्या, पेड़ तो हैं'
बाबू कुंवर सिंह से एक बार किसी ने कहा कि उनके पास तोप नहीं है। बाबू कुंवर सिंह अस्वस्थ होते हुए भी जोश में उठ बैठे और बोले- तोप नहीं है तो क्या हुआ? ताड़ के पेड़ों को कटवाओ और उन्हे भीतर से तोप की नली के ढांचे की तरह पोला करके उसमें तोप के ढंग से बारूद और गोले भरो। युद्ध के मैदान में मोर्चा लगाओ।
'लो गंगा माई! तेरी यही इच्छा है तो'
अवध बिहारी 'कवि' ने अपनी पुस्तक 'वीर कुंवर सिंह और अजायब महतो' में लिखा है कि सन् 20 अप्रैल 1858 को आजमगढ़ पर कब्जे के बाद रात में वे बलिया के मनियर गांव पहुंचे। 22 अप्रैल को सूर्योदय की बेला में शिवपुर घाट बलिया से एक हाथी पर सवार हो गंगा पार करने लगे। उसी दरम्यान फिरंगियों ने उनपर तोप के गोले दागे। इसमें बाबू कुंवर सिंह की दाहिनी कलाई कटकर लटक गयी। तब उन्होंने यह कहते हुए कि 'लो गंगा माई! तेरी यही इच्छा है तो' स्वयं बायें हाथ से तलवार उठाकर उस झूलती हथेली को काट गंगा में प्रवाहित कर दिया। हालांकि, इसके गहरे जख्म को वे सहन नहीं कर सके और अगले ही दिन वैद्य के तमाम प्रयासों के बावजूद वे शहीद हो गये।