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फिल्म रिव्यू : 'अजहर', महज रसोईघर की राजनीति (2.5 स्‍टार)

कुछ को छोड़ सभी कलाकारों ने अपना काम बड़ी ढिलाई से किया है। नतीजतन अजहर जैसा गूढ किरदार सिर्फ प्या़र के आमोद-प्रमोद और घर व टीम की रसोई-ड्रेसिंग रूम राजनीति बनकर रह गई है।

By Pratibha Kumari Edited By: Published: Fri, 13 May 2016 02:36 PM (IST)Updated: Fri, 13 May 2016 03:53 PM (IST)
फिल्म रिव्यू : 'अजहर', महज रसोईघर की राजनीति (2.5 स्‍टार)

अमित कर्ण

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प्रमुख कलाकार-इमरान हाशमी, प्राची देसाई, नरगिस फाखरी, लारा दत्ता, गौतम गुलाटी
निर्देशक-टोनी डिसूजा
संगीत निर्देशक-अमाल मलिक
स्टार-2.5 स्टार

‘अजहर’ का आगाज अंतर्विरोध के साथ होता है। वह प्रतिवाद यह कि ‘अजहर’ बायोपिक नहीं है। यह भारत के सफलतम कप्तानों में से एक मोहम्मद अजहरूद्दीन के उत्थान-पतन व तत्कालीन टीम इंडिया के हालात के मद्देनजर गढ़ा गया फिक्शन है। फिर राजसिंह डुंगरपुर, अजहरूद्दीन व उनके नाना, रवि शास्त्री, कपिल देव, मनोज प्रभाकर, बीसीसीआई, बुकी एमके शर्मा, नौरीन व संगीता बिजलानी से प्रेरित किरदारों को मिलकर भारतीय क्रिकेट इतिहास के बदनुमा अध्याय की गाथा प्रस्तुत करते हैं। फिल्म में उन लोगों के पहले नाम का इस्तेमाल कर कल्पित भूमिकाएं गढ़ी गई हैं। दिक्कत उन भूमिकाओं को निभाने वालों ने उत्पन्न कर दी है।

इमरान हाशमी, रजित कपूर, राजेश शर्मा व प्राची देसाई को छोड़ बाकी सभी कलाकारों ने अपना काम बड़ी ढिलाई से किया है। नतीजतन अजहर जैसा गूढ किरदार सिर्फ प्या़र के आमोद-प्रमोद और घर व टीम की रसोई-ड्रेसिंग रूम राजनीति बनकर रह गई है। रही सही कसर रजत अरोड़ा के शब्दाडंबरों ने कर दी है। वजनी संवादों के संग कलाकार न्याय नहीं कर सके हैं। लिहाजा संभावनाओं से परिपूर्ण यह फिल्म अजहर के प्रभामंडल व मैच फिक्सिंग लांछन की बेढब व थोथी प्रस्तुजति रह गई है।

कहानी की शुरूआत सन 2000 में मनोज के कुख्यात स्टिंग ऑपरेशन से होती है। उसके तहत वह खुद पर अजहर और अन्य खिलाडि़यों द्वारा मैच फिक्स करने का दबाव बनाने के आरोप लगाता है। बाद में चंद्रचूड़ कमिटी का हवाला दिया जाता है। उसमें दक्षिण अफ्रीका के तत्कालीन कप्तान हैंसी क्रोन्ये ने अजहर पर बुकी एमके शर्मा से मिलवाने के आरोप लगाए। क्रिकेट एसोसिएशन उन आरोपों की बुनियाद पर अजहर को प्रतिबंधित कर देती है। उसके बाद शुरू होती है लंबी कानूनी लड़ाई। अजहर को बचाने वाला वकील दोस्त रेड्डी और अजहर को गुनहगार साबित करने पर आमादा वकील मीरा वर्मा। इस घमासान के बीच अजहर का नौरीन के संग संबंध विच्छेद होता है। संगीता उसकी जिंदगी में कदम रखती है।

निर्देशक टोनी डिसूजा व लेखक रजत अरोड़ा इस महाभारत को महाकाव्य बनाने में चूक गए हैं। पहली चूक कलाकारों के चयन को लेकर है। दरअसल, जब अतिलोकप्रिय हस्ती जीवित हो तो उनके फिल्मीकरण में कद-काठी का तकरीबन मिलना अपरिहार्य होता है। चाहे तो स्टीवन स्पीलबर्ग की ‘लिंकन’ में डेनियल डे लुइस द्वारा निभाई अमेरिकी राष्ट्रनपति अब्राहम लिंकन की भूमिका देख लें। या फिर ‘भाग मिल्खा भाग’ में फरहान अख्तर का काम। ‘पान सिंह तोमर’ में इरफान ने महज मध्य’ प्रदेश के भिंड-मुरैना का लहजा पकड़ उस किरदार को अद्वितीय ऊंचाई पर ले गए थे। उक्त फिल्में विश्वसनीय व प्रामाणिक बन गईं। यहां न तो कद-काठी और न बोली का ख्यािल रखा गया है। वह चाहें रवि शास्त्री की भूमिका से प्रेरित रवीश के रोल में गौतम गुलाटी हों या मनोज बने करणवीर शर्मा। टोनी डिसूजा सब की प्रतिभाओं का मुकम्मल उपयोग करने से रह गए हैं। संगीता बनी नरगिस फाखरी भावुक पलों को कभी कहीं थाम नहीं पाईं। पूरी फिल्म में अकेले कुलभूषण खरबंदा ने हैदराबादी बोली को ढंग से निभाया और प्रभावी लगे। कपिल देव बने वरुण वडोला व सचिन बने मोहित छाबड़ा को देख क्रिकेट के जुनूनी फैन को खासी निराशा होगी।

फिल्म को सतही बनाने में वजनी संवादों का असमान वितरण है। सभी वैसे संलाप सिर्फ इमरान हाशमी के खाते में गए हैं। बाकी किरदार बस औपचारिकता निभाने भर की भूमिका में रह गए हैं। यह एकता कपूर के बैनर की फिल्म है और जैसे टेली शो व फिल्में वे पूर्व में देती रही हैं, उन सभी की सम्मिलत छाया ‘अजहर’ को असरहीन बना गई हैं। सख्त लहजे में कहा जाए तो यह टेली शो में होने वाले किचेन पॉलिटिक्स सी बनकर रह गई है। दरअसल ऐसे मिजाज की फिल्मों में संबंधित हस्ती की जिंदगी का कोई एक हिस्साा दिखाया जाता है। न कि उसका जीवन वृतांत। वह ‘गांधी’ से लेकर ‘मैरी कॉम’ तक में साफ परिलक्षित था। एमएस धौनी पर आने वाली फिल्म में भी धौनी के सिर्फ अनसुने, अनकहे किस्सों को फिल्म में गूंथा गया है। यहां अजहर के बचपन से लेकर, उत्कर्ष, स्कैंडल, प्रेम-प्रसंग को समेटने के चक्कर में किसी के साथ न्याहय नहीं हो सका है।

सबके सामूहिक भार से पूरी फिल्म फ्लैट हो गई है। क्रिकेट की बारीकियों को लेकर ‘लगान’ व ‘चक दे इंडिया’ में हॉकी की तकनीक के उम्दा उपयोग से भावनाओं का ज्वाार उभारा गया था। यहां वह नदारद है। रही-सही कसर फिल्म के स्तउरहीन वीएफएक्स इफेक्ट ने पूरी कर दी है। लंदन के स्टेडियम में विदेशी दर्शक कहीं दिखे नहीं। पिच व मैदान सब भारत की सरजमीं सी लगी। अजहर के हस्ताशक्षर शॉट लेग ग्लांस तो गिने-चुने बार इस्ते माल हुए हैं। ऐसी फिल्में इत्मीनान की मांग करती हैं, पर किस्सा गोई का सुर आक्रामक व चित्ताकर्षक बनाने के चक्कर में हद से ज्यादा कांट-छांट हो गई लगती है। एक सीन खत्म हुआ नहीं कि दूसरे सीन का बाउंसर पड़ता है। फिल्म के सिनेमैटोग्राफर ने ढेर सारे क्लोज शॉट लिए हैं, जहां कलाकारों के चेहरे पर प्राणहीन भाव पकड़ में आ गए हैं। इन सबसे फिल्म निष्प्रभावी हो गई है। हां, गाने व लोकेशन अच्छे हैं। कुल मिलाकर यह सिने व खेल दानों जगत के प्रशंसकों की अपेक्षाओं पर कुठाराघात है।

अवधि– 133 मिनट 30 सेकेंड


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