पंजाब में इस वर्ष भी खेतों में वही सबकुछ होता हुआ दिखाई दे रहा है, जिसे लेकर विगत कई वर्षों से चिंता जताई जा रही है। गेहूं मंडियों में पहुंचने के साथ ही किसानों ने खेतों में नाड़ को आग लगाने का क्रम फिर से शुरू कर दिया। इससे न सिर्फ पर्यावरण को क्षति पहुंच रही है अपितु यह जानलेवा भी साबित हो रहा है। गत दिवस जालंधर के लोहियां में गेहूं की नाड़ को आग लगाते हुए एक किसान खुद इसकी चपेट में आ गया और झुलसने से उसकी मौत हो गई। प्रदेश में ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें सड़क पर इसका धुआं फैलने के कारण दुर्घटनाएं हुई हैं और कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। यही हाल अक्टूबर में होता है जब धान के खेतों में पराली को आग लगाई जाती है। इस बात पर कुछ संतोष जरूर किया जा सकता है कि गत वर्ष पराली को आग लगाने के मामलों में कुछ कमी आई है, लेकिन अब नाड़ को जिस प्रकार से खेतों में आग लगाई जा रही है वह उत्साह पर पानी फेरने वाला है। यह सब कुछ तब हो रहा है, जबकि सभी को यह पता है कि इससे गंभीर बीमारियां फैलने के साथ ही खेत की उर्वरक क्षमता भी प्रभावित हो रही है। इसके अतिरिक्त सरकार समय-समय पर नाड़ को आग लगाने पर पाबंदी के आदेश भी जारी करती रहती है और इस बार भी धारा 143 के तहत नाड़ को आग लगाने पर पाबंदी लगाई गई है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि खेतों में इसकी सरेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। वैसे भी कानून का डर एक हद तक काम कर लेता है लेकिन असल में तो किसानों को जागरूक करना जरूरी है। इस दिशा में कुछ प्रयास हुए भी हैं और यही कारण है कि विगत कुछ वर्षों में नाड़ व पराली को आग लगाना कम हुआ है, कई किसानों ने इसे वैज्ञानिक पद्धति से निकालने का रास्ता अपनाया है तो कइयों ने इसे आमदनी का जरिया बना लिया है। इसलिए यह जरूरी है कि सरकार किसानों को जागरूक करने व नाड़ न जलाने के विकल्पों के बारे में शिक्षित करने के प्रभावी कार्यक्रम चलाए, ताकि खेती व पर्यावरण के भविष्य को सुरक्षित बनाया जा सके।

[ स्थानीय संपादकीय : पंजाब ]