यह अच्छा हुआ कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने यह स्पष्ट किया कि सभी पक्षों से बात करके चुनावी चंदे की कोई नई व्यवस्था लाई जाएगी। यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है, क्योंकि यदि चंदे की कोई नई व्यवस्था नहीं बनाई जाती या फिर चुनावी बांड की पुरानी योजना में वांछित परिवर्तन कर उसे नए रूप में नहीं लाया जाता तो देश की राजनीति फिर से कालेधन से संचालित होने लगेगी। विडंबना यह है कि न तो कोई यह बता रहा है कि क्या चुनावी बांड की खत्म की गई योजना में कुछ बदलाव कर उसे पारदर्शी बनाया जा सकता है और न ही यह कि चंदे की नई पारदर्शी व्यवस्था क्या होनी चाहिए? यह तो स्वीकार्य नहीं कि चंदे का लेन-देन उसी तरह होने लगे, जैसे चुनावी बांड योजना के पहले होता था और जिसमें किसी को पता नहीं चलता था कि किसने किसको कितना पैसा दिया? यदि विपक्षी दलों को वित्त मंत्री के कथन पर आपत्ति है तो फिर उन्हें यह बताना चाहिए कि चुनावी चंदे की कोई नीर-क्षीर व्यवस्था क्या हो सकती है? क्या यह विचित्र नहीं कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से चुनावी बांड योजना खत्म किए जाने पर विपक्षी नेताओं समेत अन्य अनेक लोगों ने खुशी तो खूब जताई, लेकिन किसी ने भी यह नहीं बताया कि भविष्य के लिए चंदे के लेन-देन का कौन सा तरीका उपयुक्त रहेगा और कैसे राजनीति में कालेधन के इस्तेमाल को रोका जा सकता है?

कई विपक्षी नेताओं ने चुनावी बांड योजना को लूट और उगाही तो करार दिया, लेकिन वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सके कि आखिर जिन कंपनियों ने भाजपा को चंदा दिया, उन्होंने उन्हें भी क्यों दिया? क्या वे यह कहना चाहते हैं कि भाजपा को मिला चंदा बुरा था और उनके दलों को मिला अच्छा? निःसंदेह कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि राजनीति का काम बिना पैसे यानी चंदे के चल जाएगा। प्रत्येक लोकतांत्रिक देश में राजनीति चंदे के पैसे से ही चलती है, लेकिन विकसित देशों ने उसके लेन-देन की प्रक्रिया एक हद तक पारदर्शी बना रखी है। इससे जनता को यह पता चलता है कि राजनीतिक दलों को कौन और कितना चंदा देता है। चुनावी बांड योजना भी इसी उद्देश्य से लाई गई थी, लेकिन वह इसलिए पूरा नहीं हो सका, क्योंकि इस योजना में वांछित सुधार नहीं किए गए। वास्तव में इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने उसे रद कर दिया। अब इसके बाद इस पर विचार तो होना ही चाहिए कि चंदे की नई व्यवस्था कैसे बने? यह तभी संभव होगा, जब सभी राजनीतिक दल इस पर गंभीरता से चर्चा करेंगे। उन्हें यह बुनियादी बात समझनी होगी कि चुनावी बांड योजना के खत्म होने पर खुश होना भर पर्याप्त नहीं है। चंदे की कोई नई पारदर्शी व्यवस्था जितनी जल्दी बने, उतना ही बेहतर।