हृदयनारायण दीक्षित। भारत में संविधान की सत्ता है। भारत का प्रत्येक नागरिक संविधान के प्रति निष्ठावान है, लेकिन कुछ समय से बहस चली है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुनाव में भारी बहुमत पाकर संविधान बदल देंगे। बहस व्यर्थ है। संविधान साधारण अभिलेख नहीं है। जड़ नहीं, गतिशील संस्था है। जन अपेक्षाओं के अनुरूप संविधान में संशोधन होते रहते हैं। अब तक लगभग 105 संशोधन हो चुके हैं। संविधान में ही संविधान संशोधन के स्पष्ट प्रविधान हैं। संविधान बदलने और संशोधन करने में मूलभूत अंतर है। संविधान संशोधन विषयक प्रविधान पर संविधान सभा में बहस चली थी। बहस में हिस्सा लेते हुए एचवी कामथ ने कहा था, 'संशोधन आखिरकार क्या है? संशोधन का अर्थ हो सकता है संविधान में कुछ परिवर्तन। उसमें कुछ जोड़ना या उसका निरसन,' लेकिन यहां संशोधन को लेकर तो कोई बहस ही नहीं, बल्कि संविधान बदलने या खत्म करने की हास्यास्पद बयानबाजी है।

संविधान निर्माता संविधान संशोधन की आवश्यकता के प्रति सजग थे। संविधान सभा में पीएस देशमुख ने कहा था कि 'भविष्य में कुछ समय तक संविधान में तमाम परिवर्तन करने आवश्यक होंगे। इसलिए संविधान संशोधन आसान बनाना जरूरी है।' बृजेश्वर प्रसाद ने कहा कि 'किसी संविधान की अपरिवर्तनशीलता के कारण नई चीजें नहीं आ सकतीं। परिवर्तन रुक जाता है।' सभा में अनेक सदस्यों ने विचार व्यक्त किए। डा. आंबेडकर ने सभी सदस्यों के उत्तर दिए। भारत में संशोधन की शक्ति विधायिका में निहित है। उन्होंने संविधान सभा में कहा कि 'हम संविधान संशोधन को तीन श्रेणियों में बांटते हैं। एक श्रेणी में संसद का साधारण बहुमत पर्याप्त है। दूसरी श्रेणी के संशोधन में दो तिहाई बहुमत आवश्यक है। तीसरी श्रेणी में देश की आधे से अधिक विधानसभाओं का समर्थन आवश्यक है।' यहां संशोधन की पूरी प्रक्रिया औचित्यपूर्ण है।

संविधान सभा में कई सदस्यों ने संशोधन प्रक्रिया को सरल बनाने की मांग की। तर्क यह था कि कभी आम जनता राजनीतिक प्रणाली को बदलने की मांग कर सकती है। डा. आंबेडकर ने कहा, 'जो संविधान से असंतुष्ट हैं उन्हें दो तिहाई बहुमत प्राप्त करना होगा। यदि वे वयस्क मत के आधार पर निर्वाचित संसद में दो तिहाई बहुमत भी नहीं पा सकते तो यह मान लेना चाहिए कि संविधान के प्रति असंतोष में जनता उनके साथ नहीं है।' उच्चतम न्यायालय ने स्थापना दी थी कि हमारे संविधान का कोई भाग ऐसा नहीं है, जिसका संशोधन नहीं हो सकता। गोलकनाथ के चर्चित मुकदमे में 11 जजों की न्यायपीठ ने छह न्यायाधीशों के बहुमत से पूर्व विनिश्चय को उलट दिया था और कहा था कि, 'यद्यपि अनुच्छेद 368 में कोई अलग अपवाद नहीं है, लेकिन मूल अधिकारों की प्रवृत्ति ही ऐसी है कि वे अनुच्छेद 368 में संशोधन प्रक्रिया के अधीन नहीं हो सकते। यदि ऐसे किसी अधिकार का संशोधन करना है तो नई संविधान सभा बुलानी पड़ेगी।' गोलकनाथ फैसले के बाद केशवानंद वाद का चर्चित फैसला आया। गोलकनाथ वाद के समय से ही प्रश्न उठाया जा रहा था कि 'क्या मौलिक अधिकारों (भाग-3) के बाहर भी संविधान का कोई उपबंध है, जो संशोधन की प्रक्रिया से मुक्त है?' केशवानंद के मुकदमे में बहुमत ने गोलकनाथ के मत को उलट दिया कि अनुच्छेद 368 के अधीन मूल अधिकारों का संशोधन नहीं हो सकता। न्यायालय ने कहा कि संविधान के कुछ आधारिक लक्षण हैं, जिनका संशोधन नहीं किया जा सकता। यदि संशोधन संविधान की आधारिक संरचना में परिवर्तन के लिए है तो न्यायालय उसे शून्य घोषित करने का अधिकारी होगा। न्यायालय ने भारत की संप्रभुता, अखंडता, परिसंघीय प्रणाली, न्यायिक पुनर्विलोकन, संसदीय प्रणाली आदि अनेक विषयों को संविधान के आधारिक लक्षण बताए। इस तरह संविधान संशोधन की प्रक्रिया काफी कठिन हो गई है।

विपक्षी दलों का मोर्चा आइएनडीआइए संविधान बदलने और खत्म करने की निराधार कल्पना बार-बार दोहरा रहा है। संविधान में आपातकाल के लिए देश की आंतरिक अशांति को आधार बताया गया है। इंदिरा गांधी ही आंतरिक अशांति से पीड़ित थीं। देश नहीं। उन्होंने आपातकालीन प्रविधान (अनुच्छेद 352) का दुरुपयोग किया। आइएनडीआइए को आपातकाल (1975-77) के समय पारित 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 का अध्ययन करना चाहिए। संविधान के विद्वान डा. डीडी बसु ने ठीक लिखा है कि '42वां संशोधन एक प्रकार से संविधान का पुनरीक्षण ही था। इसके माध्यम से संविधान की उद्देशिका में भी संशोधन हुए। 53 अनुच्छेद एक साथ बदले गए। सातवीं अनुसूची में भी परिवर्तन किए गए। यह उपबंध किया गया कि कोई उच्च न्यायालय किसी केंद्रीय कानून या जिसमें ऐसे कानून के अंतर्गत अधीनस्थ विधान भी सम्मिलित हैं, संविधान विरुद्ध होने के आधार पर उसे अमान्य नहीं कर सकेगा।' इस प्रकार 42वां संशोधन न्यायपालिका और मौलिक अधिकारों की शक्ति को घटाने वाला था। कहा गया कि उच्चतम न्यायालय किसी राज्य विधि को असंवैधानिक घोषित नहीं करेगा। संविधान संशोधन अधिनियमों के न्यायिक पुनर्विलोकन के अधिकार का भी संशोधन हुआ। उपबंध किया गया कि जिस विधि को संविधान संशोधन विधि बताया जाएगा, उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। यह मूल संविधान के ठीक उल्टा है। देश को संविधान का वह अपमान याद रखना चाहिए।

स्पष्ट है इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने संविधान और उसके आत्मा को ही कुचल दिया था। 1977 के आम चुनाव में जनता पार्टी की सरकार आई। जनसंघ जनता पार्टी का मुख्य घटक था। नई सरकार ने 43वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से न्यायिक पुनर्विलोकन के न्यायपालिका के अधिकार की बहाली की। सभी जनविरोधी प्रविधानों को निरस्त कर दिया। संविधान के प्रति भारतीय जन गण मन की निष्ठा है। संविधान बदलने या पूरा संविधान ही खारिज करने और तानाशाही लाने जैसे आरोप हास्यास्पद हैं। भारतीय संविधान के इतिहास में संविधान के साथ छेड़खानी का निंदनीय कृत्य दूसरा नहीं मिलता। विपक्षी संविधान बदलने या हटाने की बात उठाकर आपातकाल की संवैधानिक त्रासदी की याद दिला रहे हैं। इस दृष्टि से उनका यह कृत्य उपयोगी है। आपातकाल संवैधानिक त्रासदी था। संविधान को तहस-नहस करने के कृत्यों का पाठ और पुनर्पाठ जरूरी है।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)