संतोष त्रिवेदी। मेरे पड़ोस में एक बड़का नेताजी रहते हैं। आमतौर पर उनकी हरकतें सामान्य नहीं होती हैं, पर जैसे ही चुनाव की घोषणा हुई, उनकी काया में अजीब-सी हरकत होने लगी। आंखें सुनने लगीं और कान देखने लगे। उनकी जुबान में मिसरी-सी घुल गई। उन्होंने एलान कर दिया कि बहुत हुआ। अब वह जनता से मिले बिना नहीं रह सकते। पांच साल हो गए, जब वह आखिरी बार लोगों के बीच गए थे। देश-सेवा में ऐसा फंसे कि जेल जाने तक की नौबत आ गई थी। यह तो कहो समय रहते वह सही समय पर जाग गए और साथ ही उनकी किस्मत भी। जागते ही मंत्री-पद की कसम उठा ली और फिर उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। इस व्यस्तता में उनका चुनाव क्षेत्र भी लपेटे में आ गया। फिर किस्मत ने पलटी खाई। चुनावी-शंखनाद होते ही वह अब उसी क्षेत्र के लोगों से मिलने की चाहत में छटपटा उठे।

अपने वातानुकूलित कक्ष से बाहर आकर उन्होंने फौरी तौर पर मुआयना किया। गर्मी तो थी, पर सत्ता की गर्मी के आगे कुछ भी नहीं। उन्होंने तुरंत अपने करीबी कार्यकर्ताओं को नसीहत दी कि वे मैदानी-कार्यकर्ताओं से तमीज से पेश आएं। उन्होंने पहला संकल्प यही लिया कि किसानों, गरीबों, पीड़ितों और शोषितों से भरी-दुपहरी में मिलना चाहते हैं। उनके दौरे का इंतजाम फौरन किया जाए। वह अपना जीवन देश के लिए पहले ही समर्पित कर चुके हैं। उसी 'समर्पण' को फिर से ऊंचे रेट पर 'रिडीम' करवाने का 'टैम' आ गया है। उन्हें खुद से ज्यादा अपनी जनता पर भरोसा है। यही सोचकर नेताजी को बड़ा सुकून मिला और वह मिशन 'बेड़ा पार' के लिए जुट गए।

सूरज अभी निकला नहीं था, पर नेताजी जनसंपर्क के लिए निकल पड़े। काफिले में सबसे आगे सौ मोटरसाइकिलें धूल उड़ा रही थीं। इसके ठीक पीछे पचासेक गाड़ियां धूल साफ करते हुए आगे बढ़ रही थीं। क्षेत्र के विकास की तरह इनकी गति भी मद्धम थी। इन गाड़ियों में नेताजी की अपनी एक भी गाड़ी नहीं थी। इस कमी को उनके परिवारी जनों ने पूरा किया। नेताजी ने उन्हें सड़कें और खदाने दीं, पुल दिए। बदले में उन्हें 'मिशन' पूरा करने के लिए मशीनरी मिली और जनता को मिले ढेर सारे वादे। वादों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे एक्सपायरी डेट के साथ आते हैं। नए वादे आते ही पुराने स्वतः पूरे हुए मान लिए जाते हैं। आज ऐसे ही नए वादों का जन्मदिन था।

गांव की सीमा आते ही नेताजी पैदल हो गए। कई कार्यकर्ता पीछे छूट गए, पर मीडिया के दिव्य नेत्रों से वह नहीं बच सके। बड़ी मुश्किल से नेताजी एक खेत में प्रकट हुए। वहां फसल कट रही थी। यह देखकर नेताजी को धक्का लगा। उनके रहते दूसरा कोई फसल कैसे काट सकता है। उन्होंने झट से एक हाथ से हंसिया झटक लिया। अगले पल गेहूं की दो-तीन बालियां जमीन पर थीं। साथ में खून भी। हंसिया के मालिक की चीख निकल गई। सरकार जख्मी हो गए हैं। इस खबर से घटनास्थल पर हड़कंप मच गया। नेताजी लहूलुहान थे, पर चेहरे पर तनिक भी शिकन नहीं थी। हंसिया पूरी तरह निर्दोष था। फसल की पत्तियों ने ही उनके हाथ को छलनी कर दिया था। मैंने नेताजी को आश्वस्त देखकर सवाल किया, 'फसल काटते हुए आपको गंभीर चोट लगी है। इससे आपके मंसूबों पर पानी तो नहीं फिरेगा?' 'अरे बंधु, यही मेरी जीत का टीका है। रक्त की एक-एक बूंद से जनता इसका जवाब देगी।' कहते हुए नेताजी ने हंसिया उसके मूल स्वामी को सौंप दिया। 'सरकार, आप भूखे होंगे। मैं आपका पेट भी नहीं भर सकता। ऊपर से इतना रक्तपात हो गया। मैं बहुत बड़ा पापी हूं।' कहते हुए किसान बिलख उठा। नेताजी ने उसे गले लगा लिया। वह किसान के गले पड़े ही थे कि सहसा एक साथ कई आवाजें आईं, 'खच्च! खच्च! खच्च!' उनकी धड़ाधड़ फोटो खिंच रही थीं। सबकी आंखें चौंधिया गईं। नेताजी ने अपनी मशीनरी को संकेत दिया। वे सब अगले 'टारगेट' की तरफ धुंआ छोड़ते हुए बढ़ चले। अगले दिन सभी अखबारों में सचित्र खबर छपी, 'नेताजी ने अपने क्षेत्र में श्रमदान में भाग लिया और रक्तदान का शुभारंभ किया। उनसे मिलकर किसान खूब रोए!'