पुरुषों के लिए काम करने वाले संगठन कानफिडेयर की स्थापना 2011 में की गई थी। यह संगठन पीडि़त पुरुषों की सुनता है और उनकी मदद करने की कोशिश करता है। बताया जाता है कि हजारों पुरुष अपनी-अपनी समस्याओं के समाधान के लिए इस संगठन के कार्यकर्ताओं से संपर्क करते हैं। अभी इसकी शाखाएं दिल्ली एनसीआर और कर्नाटक में ही हैं। गत दिवस ही बेंगलुरू में कानफिडेयर पुरुष समुदाय की तरफ से दो दिन के सम्मेलन का समापन हुआ। इस सम्मेलन में पुरुषों की समस्याओं और उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर विशेष चर्चा हुई। सम्मेलन के बारे में बताते हुए कहा गया है कि 2014 में आत्महत्या करने वाले लोगों में 67.7 प्रतिशत पुरुष थे। अकेले कर्नाटक में 5000 पुरुषों ने अपनी जान दे दी। ये आंकड़े नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के हैं। आत्महत्या का कारण विशेष रूप से वैवाहिक, आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं थीं। अगर पूरे देश के परिदृश्य पर नजर डालें तो 2014 में 59000 पुरुषों ने आत्महत्या की। अधिकांश आत्महत्याएं ऊपर लिखी समस्याओं के कारण ही होती हैं। लेकिन इन पर शायद ही कोई ध्यान दिया जाता है। न कभी कोई बातचीत होती है, न धरने-प्रदर्शन ही। न ही कोई अभियान चलाए जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे कि पुरुषों का जान देना कोई मजाक हो। उनकी मौत पर सहानुभूति और आंसुओं की कोई जरूरत नहीं होती।

दो दिन के इस सम्मेलन में ये सात सेशन हुए 1. कारपोरेट जगत और पुरुषों का स्वास्थ्य। 2. वैवाहिक तथा पारिवारिक समस्याएं। 3. अंतरंग साथी द्वारा हिंसा। 4. मुकदमों का पुरुषों के स्वास्थ्य पर प्रभाव। 5. मादक द्रव्य व्यसन। 6. पारिवारिक विवाद में आपातकालीन स्थितियां। 7. सामाजिक चलन। इसमें जाने-माने मनोचिकित्सकों, समाज शास्त्रियों, शिक्षा शास्त्रियों और पुरुषों की समस्याओं पर कार्य करने वाले विशेषज्ञों तथा बड़ी संख्या में पुरुषों ने भाग लिया। कानफिडेयर का कहना है कि वे पुरुषों को एक ऐसा मंच प्रदान करना चाहते हैं, जहां वे अपनी समस्याएं रख सकें। अपनी बात खुलकर कह सकें। अपनी समस्याओं के हल दूसरों की मदद से खोज सकें। कानफिडेयर के सह संस्थापक अनिल कुमार का कहना है कि यह सम्मेलन इस दिशा में पहला कदम है। समस्याएं बहुत ही जटिल हैं, जिनका एकमुश्त समाधान मिलना भी मुश्किल है। दरअसल पुरुषों की समस्याओं पर लगातार अध्ययन और शोध की जरूरत है। संस्थापक विराग धूलिया मानते हैं कि जब इतने विशेषज्ञ एक साथ इकट्ठे होंगे तो उम्मीद की जानी चाहिए कि समाधान भी जरूर निकलेंगे।

सम्मेलन के जो भी निष्कर्ष निकलेंगे वे अपनी जगह होंगे। मगर आज के दौर में ऐसा न जाने क्यों मान लिया गया है कि संसार में पुरुषों की कोई समस्याएं होती ही नहीं। वे इंसान होते ही नहीं। वर्षों से उनकी छवि ही ऐसी बना दी गई है मानो वे अपराध के अलावा और कुछ करते ही नहीं। उनकी सुनने वाला भी कोई नजर नहीं आता, न पुलिस, न कानून और न सरकार। बल्कि यदि यह बात की जाए कि पुरुषों की भी कोई समस्याएं हो सकती हैं, तो आप तत्काल स्त्री विरोधी साबित किए जा सकते हैं। जबकि पूरे देश और समाज की तो गिनती क्या, एक छोटे से छोटे परिवार में स्त्री और पुरुष, दोनों रहते हैं और दोनों ही अपनी-अपनी समस्याओं और मुसीबतों का सामना करते हैं। लेकिन पुरुषों की समस्या आते ही या उस पर बात शुरू करते ही ऐसा मान लिया जाता है कि पुरुष की बात करना माने विचारों का पिछड़ापन। आखिर प्रगतिशीलता के ये कौन से मानक, मायने और परिभाषा है कि आधी आबादी को सिर्फ सताने वाला दिखाया जाए। मीडिया का एक वर्ग भी अकसर इस जुगत में रहता है कि वे औरतों के बरक्स किस प्रकार से किसी न किसी पुरुष को अपराधी बताकर खलनायक साबित करें। पूरे समाज के लिए पुरुषों की इतनी नकारात्मक छवि पेश करना अच्छी बात नहीं है। एक समय में पुरुष वर्चस्व के कारण पुरुषों को देवता और औरतों को खलनायिका बनाकर पेश किया जाता था। आज स्थिति बदल गई है। देवियों के बरक्स खलनायक बनाए और ढूंढ़े जा रहे हैं। क्या इस संसार में सिर्फ ऐसे पुरुष रहते हैं जो गैरजिम्मेदार हैं, घर और बाहर की महिलाओं को सताना भर उनका काम है। वे हमेशा लड़कियों पर बुरी नजर रखते हैं और मौका मिलते ही उनका शिकार कर लेते हैं।

यदि भारत का ही उदाहरण लें तो कुल आबादी में लगभग पैंसठ करोड़ पुरुष हैं। क्या वे सबके सब पत्नी पीड़क, व्यभिचारी और दुष्कर्मी हैं। सोचिए अगर इतनी बड़ी संख्या में वे ऐसे होंगे, तो क्या कोई भी समाज चल सकता है। पुरुषों के प्रति इस अमानवीय सोच का ही नतीजा है कि अब पुरुषों के लिए काम करने वाले संगठन इस बात की मांग करने लगे हैं कि जब भी ऐसा कोई कानून बनाया जाए जिससे उनके हितों पर सीधे चोट पहुंचती हो तो उनकी राय भी सुनी जाए। एक पक्ष की राय सुनकर कोई ऐसा निर्णय न किया जाए जिससे निरपराध पुरुषों को फंसाना आसान हो। कई संगठन महिला आयोग की तर्ज पर पुरुष आयोग बनाने की मांग भी करने लगे हैं। उनकी समस्याएं नजरअंदाज न की जाएं और सरकार की तरफ से उन्हें भी दूर करने के गंभीर प्रयास हों। स्वस्थ समाज के लिए स्त्री-पुरुषों के बीच संतुलन जरूरी है। संबंधों में बदले की भावना से न समाज चलता है, न परिवार ही। पश्चिम का उदाहरण हमारे सामने है, जहां परिवार को तहस-नहस करने के बाद अब परिवार की वापसी के नारे लगाए जा रहे हैं।

[ लेखिका क्षमा शर्मा, वरिष्ठ स्तंभकार हैं और सामाजिक मामलों की विशेषज्ञ हैं ]