तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता के उतार-चढ़ाव से भरे राजनीतिक जीवन, पांच दिसंबर की देर रात हुई उनकी मृत्यु और अंतिम संस्कार ने प्रदेश के राजनीतिक और सामाजिक जीवन को पुन: परिभाषित किया है। जयललिता के बहुआयामी व्यक्तित्व का एक भाग यदि सिनेमा ने उकेरा तो उनके राजनीतिक दर्शन का आधार द्रविड़ आंदोलन रहा, जिसका उद्देश्य पूर्ण रूप से हिंदू-हिंदी-उत्तर भारतीयों का विरोध था। इस आंदोलन का लब्बोलुआब यह था कि तमिलनाडु की मुख्य पहचान हिंदू न होकर द्रविड़ है और ब्राह्मणवाद गुलामी का प्रतीक। इस दर्शन के अनुसार किसी भी तमिल को अपनी पहचान स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि वह न केवल हिंदू समरूपता से दूरी बनाए, बल्कि उसके प्रति घृणा और शत्रुता का भी भाव रखे। जयललिता का राजनीतिक और सामाजिक जीवन इस विषवृक्ष से निकला हुआ फल था, किंतु उनका जीवन और दृष्टिकोण द्रविड़ आंदोलन के वैचारिक दर्शन से बिल्कुल विपरीत रहा। यह ठीक है कि जयललिता का दाह संस्कार वैदिक रीति-रिवाजों के बजाय दफनाकर हुआ। स्मरण रहे कि उनके पथप्रदर्शक और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमजीआर सहित अन्य द्रविड़ नेताओं के पार्थिव शरीर को दफनाया गया था, किंतु जयललिता के मामले में अंतर यह रहा कि उनके शव को दफनाने से पूर्व एक ब्राह्मण पुजारी पूरे विधि-विधान के साथ कर्मकांड कर रहा था।
वास्तव में द्रविड़ आंदोलन ईस्ट इंडिया कंपनी के साम्राज्यवादी एजेंडे के एक भाग के रूप में स्थापित हुआ था। यूं तो ब्रितानी साम्राज्य ने सन् 1757 की प्लासी की जंग जीतने के बाद भारत में अपनी जड़ें जमानी प्रारंभ की, किंतु 1647 में यूरोपीय ईसाई मिशनरी का आगमन अंग्रेज चैपलेन के मद्रास (चेन्नई) स्थित सेंट जॉर्ज फोर्ट पहुंचने के साथ हो चुका था। 1698 में ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में एक अनुच्छेद जोड़ा गया कि चैपलेन भारत की स्थानीय भाषा सीखें ताकि वह ‘बुतपरस्त’ भारतीयों को ईसाई मत समझा सकें। 1813 में गिरजाघरों के दबाव में ईस्ट इंडिया कंपनी के चार्टर में विवादित धारा जोड़ी गई, जिससे ब्रितानी पादरियों व मिशनरियों द्वारा भारत में ईसाई मत का प्रचार-प्रसार का रास्ता प्रशस्त हो गया। 1857 की क्रांति में भारत का नव मतांतरित ईसाई समाज पूर्ण रूप से स्वाधीनता के विरोध में और अंग्रेजों के साथ खड़ा था। प्रारंभ में ईसाई मिशनरियों ने हिंदू समुदाय में ब्राह्मण और शिक्षित वर्ग के मतांतरण का प्रयास किया, किंतु उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। इसके पश्चात 19वीं शताब्दी में उन्होंने हिंदुओं में उपेक्षित, शोषित व वंचित वर्ग जिन्हें आज दलित कहकर संबोधित किया जाता है, पर अपना ध्यान केंद्रित किया। इसी कालखंड में दक्षिण भारत सहित समूचे देश में स्वाधीनता की भावना सुदृढ़ हो चुकी थी। गैरब्राह्मणों को एकजुट करने के उद्देश्य से ब्रिटिश शासकों के संरक्षण में 1917 में साउथ इंडियन लिबरल फेडरेशन और जस्टिस पार्टी का गठन हुआ।
जस्टिस पार्टी, जो आगे चलकर द्रविड़ कड़गम के नाम प्रख्यात हुई, उसने 13 अप्रैल 1919 के जलियांवाला बाग कांड में अंग्रेजों द्वारा किए नरसंहार का पूर्ण रूप से समर्थन किया था। इसी पृष्ठभूमि में 1925 में ईवीआर नायकर ने आत्मसम्मान आंदोलन (द्रविड़ आंदोलन) शुरू किया, जिसका मूल उद्देश्य असमानता के नाम पर हिंदू-हिंदी और उत्तर भारतीयों का विरोध करना था। 1940 आते-आते नायकर ने द्रविड़ नाडु नामक पृथक राष्ट्र की मांग करते मजहबी मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग का भी समर्थन कर दिया। द्रविड़ आंदोलन के राजनीतिक दर्शन में ब्राह्मणवाद, हिंदी और उत्तर भारतीयों के प्रति द्वेष और वैमनस्य का भाव था, किंतु उसी विचारधारा से जनित अन्नाद्रमुक की शक्तिशाली नेता और ब्राह्मण परिवार में जन्मी जयललिता का आचरण और जीवन आंदोलन के पुरोधाओं के दर्शन से बिल्कुल विपरीत रहा। वह पूर्ण रूप से हिंदू अनुयायी थीं और उससे संबंधित सभी पद्धति, कर्मकांड और रीति-रिवाजों में विश्वास रखती थीं। आंध्र प्रदेश स्थित श्रीकलाहस्ती मंदिर में राहु-केतु की पूजा करती थीं। भगवान वेंकटेश्वर स्वामी के तिरुमाला मंदिर और पद्मावती मंदिर में नियमित रूप से दर्शन करने जाती थीं। द्रविड़ आंदोलन की जड़ें मजबूत होने के बाद भी ‘हिंदू’ जयललिता ने तीन दशक लंबे राजनीतिक जीवन में चार बार तमिलनाडु का विधानसभा चुनाव जीता और छह बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं।
क्या ईवीआर नायकर और द्रविड़ कड़गम का एजेंडा नास्तिक दर्शन से प्रेरित था या फिर हिंदू विरोध और भारत विरोध से? उनका यह पूरा आंदोलन समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों के नाम पर हिंदू दर्शन, उसकी परंपरा और कर्मकांड पर कुठाराघात करता था। यक्ष प्रश्न है कि क्या इस तरह की विकृतियां केवल हिंदू समाज तक सीमित हैं? क्या इस्लाम और ईसाई मजहब इससे बिल्कुल दोषमुक्त हैं? आखिर क्यों द्रविड़ आंदोलन ने इस्लाम और ईसाई मजहबों की कुप्रथाओं या कदाचारों की चर्चा नहीं की? संभवत: दिवंगत जयललिता ने इस विरोधाभास को समझा और अपने राजनीतिक व निजी जीवन को द्रविड़ आंदोलन के दर्शन से अलग कर लिया।
जयललिता के देहांत के बाद तमिलनाडु का नेतृत्व ओ. पन्नीरसेल्वम कर रहे हैं। पार्टी के भीतर मुख्यमंत्री पन्नीरसेल्वम और शशिकला को लेकर विरोध प्रारंभ हो चुका है। अम्मा के जाने के बाद अन्नाद्रमुक में जिस प्रकार की राजनीतिक शून्यता आई है उसका भविष्य में प्रदेश और केंद्र की राजनीति में गहरा प्रभाव पड़ेगा। 16वीं लोकसभा में अन्नाद्रमुक 37 सीटों के साथ तीसरा सबसे बड़ा दल है, जबकि राज्यसभा में उसके 11 सदस्य हैं। जयललिता की अनुपस्थिति में कावेरी नदी के बंटवारे और मुल्लापेरियार बांध के अतिरिक्त केंद्र के समक्ष जीएसटी, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव मुख्य चुनौती है, जिसमें अन्नाद्रमुक की भूमिका महत्वपूर्ण है।
आज तमिलनाडु में हिंदू और राष्ट्रीय भाषा हिंदी का विरोध नगण्य है। प्रदेश के साधारण तमिल जन ईश्वर और कर्मकांड में उसी प्रकार आस्था रखते हैं जैसे कि देश के अन्य किसी भाग में रखा जाता है। द्रविड़ कड़गम के विचार गर्भ से निकले द्रमुक में भी हिंदू दर्शन के प्रति कोई उग्र दुर्भावना नहीं है, जैसे पहले हुआ करती थी। दक्षिण भारत के इस राज्य में यदि यह परिवर्तन आया है तो निश्चित रूप से उसका जयललिता को ही जाएगा। उन्होंने बार-बार चुनाव जीतकर सिद्ध कर दिया है कि देश की सनातन बहुलतावादी संस्कृति का निरंतर अपमान करना केवल घाटे का सौदा है। आशा करनी चाहिए कि भविष्य में भी तमिलनाडु की राजनीति अंग्रेजों के मजहबी और विभाजनकारी एजेंडे से मुक्त रहेगी।
[ लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं ]