फिल्म फेस्टिवल : केवल बात नहीं, बच्चों के लिए करना होगा काम
मैं अगर अपनी बात करूं तो मैनें अपना बचपन नहीं जिया। मेरी तरह ही बहुत से बच्चे, बचपन में ही बड़े हो जाते हैं। हम अभी बच्चों के लिए सिर्फ बात कर रहे हैं।
पटना। मैं अगर अपनी बात करूं तो मैनें अपना बचपन नहीं जिया। मेरी तरह ही बहुत से बच्चे, बचपन में ही बड़े हो जाते हैं। हम अभी बच्चों के लिए सिर्फ बात कर रहे हैं। अब जरूरत है हमें इनके लिए कुछ करने की। ये बातें अधिवेशन भवन में कछुआ चाचा के रूप में प्रसिद्ध कलाकार विनीत कुमार ने कहीं। विनित ने कहा कि हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि बच्चे चाहते क्या हैं। उनकी जरूरतों, भावनाओं और सपनों को समझना होगा। मौका था बोधिसत्व इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के चौथे दिन ऑडिटोरियम 1 में पैनल डिस्कशन का। इसका विषय बाल फिल्म और उनका समाज पर प्रभाव था। चर्चा में मुख्य वक्ता के रूप में विनित कुमार, यूनिसेफ की संचार विशेषज्ञ निपूर्ण गुप्ता, केन्या मूल के फिल्म निर्माता सीमीयू बारासा, चक दे इंडिया फेम शिल्पा शुक्ला, रिजेन्ट सिनेमा के मालिक सुमन सिन्हा मौजूद रहे। वहीं माझी द माउंटेन मैन में दशरथ माझी की बेटी राजकुमरिया की भूमिका निभाने वाली चादनी कुमारी और बलचनमा में काम करने वाली खुशबु कुमारी भी शामिल रहीं। कार्यक्रम का संचालन ऑस्ट्रेलिया के फिल्मकार चार्ल्स थॉमसन ने किया।
बच्चों के विकास के लिए बाल फिल्में जरूरी
परिचर्चा के दौरान शिल्पा शुक्ला ने कहा कि देश का भविष्य बच्चे ही हैं और उनका सशक्तीकरण बहुत जरूरी है। बाल फिल्में बच्चों के विकास में कंडिशनिंग का काम करती हैं। वहीं निपूर्ण गुप्ता ने कहा कि बच्चों के मुद्दे पर लोगों तक बात पहुंचाने के लिए बाल फिल्मों की बहुत बड़ी भूमिका हो सकती है। देश की अनंत संभावनाएं बच्चों से ही जुड़ी हैं। इसलिए बाल फिल्में बच्चों के लिए, बच्चों की समस्याओं और बच्चों द्वारा अभिनीत की जानी चाहिए।
बच्चों को दिखाएं गुणवत्तापरक फिल्में
इस अवसर पर केन्या के फिल्म निर्माता सिमियू बरासा ने कहा कि हमें बच्चों के मुद्दों पर फिल्म बनाने से पहले उनकी बातों को सुनना और समझना होगा। अक्सर हम उनके लिए सही व गलत का निर्धारण अपने मापदंडों के अनुसार कर देते हैं। रिजेंट सिनेमा के प्रबंधक सुमन सिन्हा ने कहा कि भेदभाव केवल समाज में ही नहीं बल्कि हमारे परिवारों से शुरू होता है। हम बच्चों से जुड़ी फिल्में अगर स्कूल या किसी अन्य जगहों पर दिखाते हैं, तो अभिभावक इसमें रुचि नहीं दिखाते। इसलिए अभिभावकों को बचपन को जीवित रखने के लिए अपने बच्चों को गुणवत्तापरक फिल्में दिखाना होगा और मानसिकता में भी बदलाव लाना होगा।