सरकार की उदासीनता से मिट रहा संस्कृत विद्यालयों का अस्तित्व
मनीष कुमार, मुंगेर। गुप्तकाल तक सामान्य व्यक्तियों के बोलचाल की भाषा रही संस्कृत आज विलुप्त ह
मनीष कुमार, मुंगेर। गुप्तकाल तक सामान्य व्यक्तियों के बोलचाल की भाषा रही संस्कृत आज विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी है। संस्कृत के प्रति सरकारों की उपेक्षापूर्ण नीति के कारण धीरे-धीरे इसके अस्तित्व पर ही संकट के बादल मंडराने लगे हैं। देव भाषा मानी जाने वाली संस्कृत भाषा का उपयोग केवल पूजा-पाठ, शादी, श्राद्ध आदि कार्यों तक सिमट कर रह गया है। जबकि संस्कृत भाषा को ¨हदी की जननी कहा जाता है। बताते चलें कि संयुक्त बिहार में कुल 17 संस्कृत उच्च विद्यालय हुआ करते थे। झारखंड के बिहार से विभाजित होने के बाद बिहार में इसकी संख्या 11 रह गई तथा शेष 6 झारखंड में चले गए। ये विद्यालय मुंगेर, सुल्तानगंज, फारबिसगंज, सहरसा, मोतिहारी, मुजप्फरपुर, आरा, पटना, दरभंगा आदि स्थानों पर अवस्थित हैं। लेकिन धीरे-धीरे इनका अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है। 1990 के दशक के बाद तक मुंगेर के संस्कृति विद्यालय में छात्रों की संख्या 100 से अधिक हुआ करती थी। लेकिन 1990 के बाद से सरकार की नीति इसके प्रति बदलने लगी। इस समय के बाद से राज्य के संस्कृत विद्यालयों में शिक्षकों तथा कर्मियों की नियुक्ति नहीं के बराबर होने लगी। कलान्तर में एक ऐसा भी वक्त आया जब सरकार इन विद्यालयों को बंद करने पर भी विचार करने लगी थी। बताते चलें कि संस्कृत विद्यालयों का नियंत्रण सहायक शिक्षा निदेशक संस्कृत, बिहार के माध्यम से किया जाता है। लेकिन शिक्षकों तथा कर्मियों की बहाली नहीं होने के कारण तथा सरकार की संस्कृत के प्रति नकारात्मक रवैये के कारण धीरे-धीरे इन विद्यालयों के शिक्षक सेवानिवृत होते चले गए। यहां तक कि विद्यालयों का भवन खंडहर में तब्दील होता चला गया। बताते चलें कि मुंगेर स्थित संस्कृत उच्च विद्यालय का भवन जर्जर हो चुका है। छत का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा है जहां से बरसात में पानी नहीं टपकता हो। कई कमरे की छत टूटकर नीचे गिर चुका है। कमरे में रखा दस्तावेज तथा फर्नीचर पानी में रहते रहते सड़ गया है। एक भी शिक्षक यहां कार्यरत नहीं है। केवल एक लिपिक यहां कार्यरत हैं। जिनका समय प्रत्येक दिन व्यवस्थाओं से जूझते हुए बीत जाता है। बताते चलें कि मुंगेर के संस्कृत विद्यालय में 1991 तक 71 बच्चे नामांकित थे। इसके बाद छात्रों की संख्या कम होती चली गई। इस विद्यालय में अंतिम बाद 2011-12 के सत्र में 2 छात्रों ने नामांकन करवाया था। इसके बाद से यहां न तो एक शिक्षक हैं और न ही एक छात्र। यहां कार्यरत लिपिक मनीष कुमार कहते हैं कि फारबिसगंज अररिया के संस्कृत विद्यालय के प्रधानाध्यापक सह डीडीओ प्रकाश झा के मार्च में सेवानिवृत हो जाने के बाद से आज तक वेतन का भुगतान नहीं हो पाया है।
- संस्कृत की दुर्दशा सियासत के कारण हुई है। कभी देवभाषा कही जाने वाली संस्कृत को मिटाने की साजिश की जा रही है। जब तक संस्कृत को रोजी रोटी से नहीं जोड़ा जाएगा, इसका भला नहीं हो सकता है। बिना शिक्षक और छात्र के संस्कृत विद्यालय गलत शिक्षा नीति की पोल खोल रहा है।
कौशल किशोर पाठक, शिक्षाविद्